यह मेरी कविताओं का छोटा संग्रह है। अपने विचार जरूर व्यक्त करें मुझे प्रसन्नता होगी।
शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008
बालिका भ्रूणहत्या
प्यारी-प्यारी बातें इसकी, हैं कितनी अच्छी ।
प्यार करूं कितना भी, कम ही कम लगता है
लाड़ लड़ाऊं जितना, पर मन नहीं भरता है ।
मैं सोचता रहता हूं काम इसे कितने हैं
आने वाला कल इस पर ही निर्भर है ।
नई-नई पीढ़ी को दुनिया में ये ही लाएगी
हम इसको जो देंगे दस गुना उन्हें यह देगी ।
सब सीख उन्हें ये देगी, पालेगी-पोसेगी
तकलीफ अगर होगी, तो रात-रात जागेगी ।
इसके दम से ही, हम दम भरते हैं दुनिया में
इसके दम से ही, तुम दम भरते हो दुनिया में ।
पर दुर्भाग्य हमारा देखो, अकल के कुछ अंधे हैं
दुनिया में आने से पहले ही, जो मार इसे देते हैं ।
वो भी क्या कम हैं, जो तंग इसे करते हैं
दहेज की वेदी पर, जो बलि इसकी देते हैं ।
अगर नहीं यह होगी, तो कल भोर नहीं होगी
यह संसार नहीं होगा, यह सृष्टि नहीं होगी ।
हम भी नहीं होंगे, तुम भी नहीं होगे
विश्वास मुझे है तब वो भी नहीं होगा ।
जिसके दम से हम दम लेते हैं दुनिया में
जिसके दम से तुम दम लेते हो दुनिया में ।
तब वो भी नहीं होगा-तब वो भी नहीं होगा।
शुक्रवार, 20 जून 2008
प्रेम द्विवेदी सच बोला था!
वो सच बोला था? प्रेम द्विवेदी सच बोला था! वो सच बोला था?
प्रेम द्विवेदी बोला था-
सत्य वचन हो, कर्तव्य निष्ठ हो
परोपकार में ध्यान लगाओ
कथनी-करनी एक बनालो
जो करना हो वो बोलो
जो बोलो वो कर डालो
मंत्र हमेशा साथ रहा यह
अपनाया इसको, जीवन में ढ़ाला।
कभी-कभी मैं थक जाता हूँ
निराश अकेला सोचा करता हूँ-
देख रहा हूँ वो भेड़िये
जो छुपे भेड़ की खाल ओड़ कर
यहाँ-वहाँ पर खड़े हुये हैं।
वो देखो वे श्वान वहाँ पर
तैयार ताक में खड़ा हुआ है
छ्पट पकड़ लेगा वो बिल्ली
जो बैठी है घात लगाकर
उस चूहे को ताक रही है।
वो मदमस्त चला आता है हाथी
चूर नशे में तन कर कितना
कुचल-मसलकर रख देगा
कहीं कोई जो रस्ता रोकेगा।
वो देखो, वो गिद्ध वहाँ बैठे कितने हैं
मरे गिरों को भी नोचेंगे।
वो दूर सिंह चला आता है निर्भय
जब आता है उसके मन में
मार गिरा देता है, खा जाता है
नहीं किसी का डर है उसको
बेताज बादशाह बन बैठा है
कौन उसे गद्दी से खींचेगा?
कौन उसे रोके-टोकेगा?
कौन नकेल लगा पायेगा?
वो घोड़ा दौड़ रहा हिरनों के पीछे
ले मालिक को ऊपर अपने
खुद इनको कभी नहीं ये खाता
पर मालिक से है उनको मरवाता
मालिक उसका है अजब निराला
खेल-खेल में मारेगा
चमड़ी में भूसा भरवा देगा।
नहीं किसी का डर है उसको
नहीं किसी से प्रेम है उसको
मैं जब देखा करता हूँ यह सब
सोचा करता हूँ –
तुमको क्या लगता है-
गुरुवार, 13 मार्च 2008
समुद्र की लहरें
कितने जोश में
कितने वेग से
चली आतीं हैं
इतराती, मंडराती
किनारे की ओर।
और रह जातीं हैं
अपना सर फोड़कर
किनारे की चट्टानों पर।
लहर खत्म हो जाती है
रह जाता है -
पानी का बुलबुला
थोड़ा सा झाग।
लहरें निराश नहीं होतीं
हार नहीं मानतीं ।
चली आती हैं
बारबार, निरंतर, लगातार
एक के पीछे एक।
एक दिन सफल होतीं हैं
तोड़कर रख देतीं हैं
भारी भरकम चट्रटान को
पर फिर भी शान्त नहीं होतीं
आराम नहीं करतीं।
इनका क्रम चलाता रहता है।
चट्रटान के छोटे छोटे टुकड़े कर
चूर कर देतीं हैं -
उनका हौसला, उनके निशान।
बना कर रख देतीं हैं
रेत
एक बारीक महीन रेत
समुद्र तट पर फैली
एक बारीक महीन रेत।
मुंबई नगरी
यह सपनों की दुनिया है
सितारों की दुनिया है
सितारों के सपनों की दुनिया है।
यहाँ हर छोटे-बड़े शहर का,
गाँव का, कस्बे का आदमी
सपना लिये आता है।
नये सपने बनाता है।
सपने खरीदता है,
सपने बेचता है।
सपनों में ही रहता है।
और सपनों में ही खुश भी रहता है।
आप तो जानते हैं
सपने तो फिर सपने होते हैं
बहुत नाजुक होते हैं।
जरा नींद खुली तो टूट जाते है बेचारे।
इस नगरी के आदमी के साथ
यही होता है।
बेचारे की नींद खुलती है
तो सपने टूट जाते हैं।
नींद खुल जाये सपना टूट जाये
तो बेचारा क्या करे?
आँख मूंद कर सो जाये
फिर नये सपने में खो जाये?
या जाग जाये, उठ कर बैठ जाये
नींद को भगा दे, यथार्थ में जी ले?
सच बहुत कड़वा होता है
यथार्थ में जीना कठिन होता है।
इस महानगरी में -
उसे पटरी से हटकर
'चौल' (1) में रहना होता है।
उसे फुटपाथ पे सोना होता है।
इसीलिये ज्यादातर लोग यहाँ
नींद में सोये रहते हैं।
ज्यादातर लोग यहाँ
सपनों में खोये रहते हैं।
(1) मुम्बई में कतार में बने डिबियानुमा घर
संबंधों का रिश्तों से नाता
जो बाँधना चाहते हैं
संबंधों को
रिश्तों की परिभाषा में।
संबंध आदि से चला आ रहा
नाता है, कभी नहीं मिटता।
बना रहता है
एक आत्मा का दूसरी आत्मा से
सदियों सदियों तक।
रिश्तों की दायरा सीमित है
और परिभाषा संकीर्ण।
इसमें ढालने के लिये
संबंधों को काट छाँट कर
छोटा करना पड़ेगा,
और उनकी हत्या हो जायेगी।
अच्छा हो, वो छोड़ दें अपना प्रयास।
स्वच्छन्द जीने दें
संबंधों को।
रिश्तों से परे, दूर रहने दें उनको
किसी भी
कलुषित प्रदूषित भाव से दूर
पवित्र, पुनीत, पावन बन्धन में।
शरलक होल्मस (1) का पोता
'तुम्हें कौनसा मौसम अच्छा लगता है?'
उसने कहा - जाड़े का मौसम'
मैंने जान लिया -
बालक किसी धनवान की संतान है।
उसके पास पहनने को
कपड़े हैं, स्वेटर हैं, कोट है।
जरूर किसी अमीर घर की जोत है।
मैंने एक दूसरे बालक से पूछा -
तुम्हें कौनसा मौसम अच्छा लगता है?'
उसने कहा - बरसात का'
मैं जान गया यह बालक
किसी मध्यम वर्ग के घर का है।
इसके पास रहने को घर है।
घर पर एक छत है।
ये खुले आकाश के नीचे नहीं रहता।
बरसात में कभी-कभी
स्कूल की छुट्रटी करता होगा।
माँ बाप की आशाएं होंगी इसके साथ,
साथ ही डर भी - कहीं रपट न जाये
तरक्की की सीढ़ी से फिसल न जाये।
फिर मैंने एक तीसरे बालक से पूछा -
तुम्हें कौनसा मौसम अच्छा लगता है?'
उसने कहा - गर्मी का'
मैं जान गया वह खुले में रहता होगा।
जमीन पर या फुटपाथ पर सोता होगा।
बारिश में भीगता होगा
ठंड में ठिठुरता होगा।
इसीलिये जाड़े और बरसात को नहीं चाहता।
मैं समझ गया
किसी गरीब घर का बालक है।
मेरे साथ अक्सर ये होता है।
मैं साधारण प्रश्न कर, जान लेता हूँ
आदमी का, उसके घर परिवार का
पता लगा लेता हूँ वहाँ क्या होता है
जान लेता हूँ किसमें, कहाँ, कितना टोटा है।
जब भी मेरे साथ यह होता है
लोग मुझे कहते हैं-
यह शरलक होल्मस का पोता है।
लोग मुझे कहते हैं-
यह शरलक होल्मस का पोता है।
(1) इंगलैंड के, जासूसी कहानियों के जगत प्रसिद्ध कहानीकार, सर आर्थर कानन डॅायल द्वारा रचित उनकी लिखी गयी जासूसी कहानियों का जगत विख्यात नायक।
बेटी पराया धन नहीं होती
बेटी, कोई वस्तु नहीं, कोई चीज नहीं
जिसे रुपयों से तोलो।
वो अनमोल होती है।
हमारा अंग होती है।
एक सुन्दर गुडि़या होती है।
उसमें होता है एक मन
स्वच्छ, सुन्दर, निर्मल मन।
उसमें एक बहुत विशाल दिल होता है
दिल में भाव और प्यार होता है।
उसमें एक दिमाग होता है
जो स्थिति समझ सके, सच को पकड़ सके।
वो सोचती है, विचारती है,
हमारे घर को संवारती है
किलकारी से भर देती है।
फिर अपने घर को संवारती है,
किलकारी से भर देती है।
एक नया जीवन देती है।
बेटी, पराया धन नहीं होती।
ये नयी दुनिया शुरू करने वाली
कितनी सशक्त होती है,
कितनी सजीव होती है।
एक नया रूप देती है,
समाज को नया मोड़ देती है
सभ्यता का केन्द्र-बिन्दु होती है।
बेटी पराया धन नहीं होती।
शाकाहारी कुत्ते
ऊँचा कद, लम्बा शरीर
भारी आवाज़, सब मिलाकर
पीटर एक खतरनाक कुत्ता था
हमारे मुहल्ले के कु़त्तों का सरदार भी
सभी उसका रोब मानते थे
उसके पीछे दुम हिलाते थे।
हम सब बच्चे भी उसको मानते थे
जब कहीं आता दिखाई पड़ता
पता नहीं डर से या आदर से
सीधे खड़े हो जाते थे।
जब कुछ बदमाशी मन में होती
पता नहीं कैसे भाँप लेता था
घुर - घुर करता रास्ता रोक लेता था।
दिनभर-रातभर चौकसी करना - उसका यही काम था।
क्या मजाल कोई चोर उधर मुँह करे।
इतना ही नहीं आस पास के मुहल्ले वाले भी
सुरक्षित महसूस करते थे।
हम सभी को गर्व था
हमारे मुहल्ले में बाहर से चोर नहीं आया था
बाहर के चोर ने चोरी नहीं की थी।
हमारे मुहल्ले में कोई चोर नहीं था
अन्दर के चोर ने चोरी नहीं की थी।
एक दिन बहुत असाधारण बात हुयी
हम सब अचम्भे में यह कैसे हुआ।
पुलिस आयी और नुक्क्ड़, के मकान से
किरायेदार को पकड़कर ले गयी।
सुना गया उन्होंने गबन किया था
लाखों का गबन किया था
बैन्क को जमकर लूट लिया था।
हम सबने आपात कालीन मीटिंग बुलाई
चर्चा हुयी यह कैसे हुआ-
इतना बड़ा चोर, हमारे बीच
किसी को खबर भी नहीं
हमको न रही न सही
सूँघकर जान लेने वाले पीटर को भी नहीं?
बहुत विचार किया
कुछ समझ नहीं आया।
कुछ देर बाद
हम सब अपने-अपने घर चले गये।
प्रश्न हमारे साथ हमारे घर गया।
माँ से पूछा ऐसा कैसे हुआ ।
माँ बोली - शाम को देखना
पीटर कहाँ जाता है।?'
हमारी टीम फिर जुट गयी
दोपहर बाद से ही सारी खबर आने लगी
कब उठा, कब अँगड़ाई ली, किस ओर मुँह किया।
जब धुधलका हो चला
हमने देखा -
पीटर नुक्कड़, वाले घर पर था।
वो उसे रोटी नहीं
माँस, मछली दे रहे थे।
बात हम सब समझ गये
हम लोग बस रोटी देते हैं
ये लोग उसे बोटी देते हैं।
मसालेदार खाना देते हैं
मसाले की गन्ध नाक में भर जाती है।
सूँघने की शक्ति कम हो जाती है
पीटर कुछ बोलता नहीं
खड़ा हो दुम हिलाता है।
हमें विश्वास हो गया-
हमें अन्दर के चोरों को पकड़ना होगा
तो शाकाहारी कुत्तों को लाना होगा।
बुधवार, 12 मार्च 2008
भविष्य से अतीत में
तो पाता हूँ
स्वयं को बँधा
अपने परिवार की
पीढि़यों की लड़ी में पड़ी
एक कड़ी सा,
जिसकी पहचान है, महत्व है
पिछली कड़ी को
अगली कड़ी से जोड़ने में।
एक तरफ हैं
मेरे माता और पिता ।
जब देखता हूँ उनको
उनमें छिपा एक चेहरा पाता हूँ
जाना पहचाना सा
वही माथा, आँख, नाक, होठ और ठोड़ी।
बिलकुल मेरी तरह।
क्या कहूँ इन्हें-
अतीत की निशानी या भविष्य का बिम्ब?
माना ये पिछली पीढ़ी के प्रतीक हैं
पर हैं भविष्य - मेरा अपना भविष्य
वह शायद ऐसा ही होगा।
दूसरी तरफ हैं मेरे बच्चे।
नन्हे, नादान, बाल क्रीड़ा में मग्न।
इनमें भी एक चेहरा छिपा है।
वही नाक, कान, आँख और होठ
वही आदत, शैतानी, वही मस्ती
याद दिलाते हैं मुझे
मेरा बचपन, मेरा अतीत।
ये कल की धरोहर हैं
हमारा भविष्य हैं ये लोग।
पर मैं तो देखता हूँ इनमें
अपना अतीत, बस अपना अतीत
बहुत कुछ ऐसा ही तो था।
इस अतीत और भविष्य की कड़ी में बंधा
सोचता रहता हूँ -
यह अतीत मेरा भविष्य है
और यह भविष्य मेरा अतीत।
समझ नहीं पाता-
हम अतीत से भविष्य में जा रहे हैं,
या भविष्य से अतीत में?
मंगलवार, 11 मार्च 2008
बालिका-भ्रूण हत्या
प्यारी-प्यारी बातें इसकी, हैं कितनी अच्छी ।
प्यार करूं कितना भी, कम ही कम लगता है
लाड़ लड़ाऊं जितना, पर मन नहीं भरता है ।
मैं सोचता रहता हूं काम इसे कितने हैं
आने वाला कल इस पर ही निर्भर है ।
नई-नई पीढ़ी को दुनिया में ये ही लाएगी
हम इसको जो देंगे दस गुना उन्हें यह देगी ।
सब सीख उन्हें ये देगी, पालेगी-पोसेगी
तकलीफ अगर होगी, तो रात-रात जागेगी ।
इसके दम से ही, हम दम भरते हैं दुनिया में
इसके दम से ही, तुम दम भरते हो दुनिया में ।
पर दुर्भाग्य हमारा देखो, अकल के कुछ अंधे हैं
दुनिया में आने से पहले ही, जो मार इसे देते हैं ।
वो भी क्या कम हैं, जो तंग इसे करते हैं
दहेज की वेदी पर, जो बलि इसकी देते हैं ।
अगर नहीं यह होगी, तो कल भोर नहीं होगी
यह संसार नहीं होगा, यह सृष्टि नहीं होगी ।
हम भी नहीं होंगे, तुम भी नहीं होगे
विश्वास मुझे है तब वो भी नहीं होगा ।
जिसके दम से हम दम लेते हैं दुनिया में ।
जिसके दम से तुम दम लेते हो दुनिया में
तब वो भी नहीं होगा-तब वो भी नहीं होगा।
बेटी की अभिलाषा
- बेटी! बता मुझे, तेरी अभिलाषा क्या है?'
कुछ सोचा उसने
फिर बोली मुझसे
वो तन के
- उन्मुक्त गगन में उड़ जाऊँ
नभ को छू लूँ , पंछी बन।
मैं डोलूँ बाघिन सी, निडर
जिस ओर चलूँ हट जायें सभी
रास्ता दें, झुक जायें सभी।
रण में डट जाऊँ लक्ष्मीबाई सी
रास्ता करलें वीर सभी।
आ जाऊँ कहीं जो राजनीति में
इन्दिरा गाँधी सी डट जाऊँ मैं।
नहीं चाहिये मुझको कुछभी
झुमका, चन्दन, बिंदिया, कंगन।
देना हो दे देना मुझको,
इतना बस वरदान प्रभू
जीवन मैं जी लूँ अपने ढंग से
लिख दूँ नये कानून नियम।
बालाऔं के मुँह से हट जायें
आँसू, रोना, चिन्ता की रेखाऐं सभी।
फिर कोई नहीं बोले इस युग में
"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में दूध और आँखों में है पानी।"(1)
(1)राष्ट्र कवि आदरणीय स्वर्गीय श्री मैथली शरण गुप्त जी की रचना 'यशोधरा' से।
चिडि़या को मत बंद करो तुम
एक कहानी बहुत पुरानी ।।
नन्हीं सी एक चिडि़या रानी।
मेरे घर में आती थी ।।
कूक-कूक कर मुझे बुलाती।
किलकारी से घर भर जाती ।।
मीठे सुर में गाना गाती ।
हम सब का वो दिल बहलाती ।।
जब भी उसका मन करता था।
बहुत दूर वह उड़ जाती थी।।
भूख लगी तो घर को आती ।
वरना वो बाहर रह जाती ।।
एक दिवस को नटखट चुन्नू।
जाल बिछा कर बैठ गया।।
चिडि़या को उसने पकड़ लिया।
पिंजड़े में फिर जकड़ दिया।।
चिडि़या अब मुश्किल में थी।
चुन्नू के कब्जे में थी ।।
गाना उसने बन्द किया।
अनशन पानी ठान लिया ।।
चुन्नू ने उसको ललचाया।
लड्डू पेड़े खाने को लाया ।।
चिडि़या बिलकुल बदल गयी थी ।
सूरत उसकी उतर गयी थी ।।
चिडि़या थी मन की रानी।
आँखों में था उसके पानी।।
मैंने फिर पिंजड़ा खोला।
चिडि़या को बाहर छोड़ा।।
फुर से चिडि़या निकल गयी।
दूर डाल पर बैठ गयी।।
पहले उड़ ऊपर को जाती।
फिर गोता मार नीचे को आती।।
मीठे सुर में गाना गाती।
मकारीना नाच दिखाती।।
कितनी खुश चिडि़या रहती।
जो मन आया वो करती।।
एक बात की सीख करो तुम।
चिडि़या को मत बन्द करो तुम।।
जितनी खुश चिडि़या होगी।
उतने खुश तुम भी होगे।।
चिडि़या को मत बन्द करो तुम।
चिडि़या को मत बन्द करो तुम।
बैलगाड़ी का कुत्ता
बैलगाड़ी के नीचे
किसी कुत्ते को चलते।
समझता है -
वो बोझा उठा रहा है
बैलगाड़ी का, उसे दिशा दे रहा है
ले जा रहा है- खेत से खलिहान, बाज़र, हाट तक
उसके बिना कुछ नहीं होगा
सब रुक जायेगा।
वो नहीं मानता - बोझ ढोते हैं बैल
दिशा देता है चालक, किसान।
ये सब भी बस निमित्त मात्र ही हैं
कर्ता हैं, रचयिता नहीं
साधन हैं, योजक नहीं।
कुत्ता मानता है - वही सब कुछ है।
कुत्ता ही सब कुछ है।
आपने देखा है चारों और - कितने कुत्ते हैं?
डरता हूँ कहीं मैं भी कुत्ता न बन जाऊँ।
रविवार, 24 फ़रवरी 2008
नियति और नीयत
मालूम नहीं हमको कुछ भी ।
घबराहट है, डर लगता है ।
पर होता वही है -
जो नियति में है बन्द हमारी ।
नीयत का मालूम हमें है ।
अंदर चलती बात पता है ।
क्या लेना, क्या देना किसको
सब बातों की बात पता है ।
इन दोनों में अन्तर इतना -
नीयत अपनी शक्ती में है ।
नियति पर चलती उसकी है ।
नीयत को यदि साफ रखोगे
नियति में बरकत होगी ।
नीयत में यदि खोट रहेगा
नियति में भी खोट लगेगा ।
इसीलिये मैं कहता हूँ -
नीयत अपनी साफ रखो
सीधा सच्चा काम करो
उसका भी कुछ नाम कहो।
चिन्ता कैसी ? चाह नहीं हो ।
होना हो, हो जाये वही फिर
नियति में जो बन्द हमारी ।
नियति में जो बन्द हमारी ।
मेरा सारथी
पर है चित्र उसका
साथ हरदम
पास मेरे
मन के भीतर।
ध्यान उसका धर अगर लूँ
नमन कर उसको बुलाऊँ -
पास मेरे आके हरदम
साथ मेरे वो चला है।
समस्या कोई खड़ी हो
समाधान मुझको मिला है।
धैर्य की जब - जब कमी थी
हौसला मुझको मिला है।
चैन खोकर जब कभी मैं
घबरा गया था राह में,
हाथ मेरा हाथ लेकर
साथ मेरे वो चला है ।
पार्थ स्वयं को,
मानता बिलकुल नहीं हूँ
न पार्थ सी सामर्थ्य मुझमें ।
पर सारथी मेरा वही है।
पार्थ के जो साथ में था।
युद्ध में औेर शान्ति में
साथ मेरे वो रहा है।
ध्यान उसका धर अगर लूँ
नमन कर उसको बुलाऊँ -
पास मेरे आके हरदम
साथ मेरे वो चला है।
साथ मेरे वो चला है।
डाक्टर लालू का नुस्खा
सब को साथ में लेकर अपने
कितनी तेजी रफ्तार चली है
फटेहाल रहती थी पहले
टक्कर यहाँ हुयी थी इसकी
वहाँ गिरी थी धक्का खाकर
पैसे सारे खत्म हुऐ थे
घाटे का सौदा लगती थी।
बड़े डाक्टर ने बतलाया था
बुढ़ा गयी है अब ये बिलकुल
मोटी भी कितनी लगती है
काट छाँट कर छोटा करलो
वज़न गिरा कर आधा करलो।
कड़वी घुट्टी धरी सामने
बोला इसको झटपट पी लो
शायद ही यह बच पायेगी
वरना जल्दी मर जायेगी।
डाक्टर बड़ा काबिल था लेकिन
शहारों में पल कर आया था
नहीं ज्ञान था उसको बिलकुल
गरीब बेचारे कैसे रहते हैं
कितना रेलों पर निर्भर हैं।
रोटी कपड़ा तेल पानी सब कुछ
ये ही ले जाकर देती है उनको
नहीं रहेगी कल जब यह तो
वो क्या खायेगा, क्या पीयेगा
कैसे फिर वह रह पायेगा।
तभी परिवर्तन की लहर उठी
माता का दरबार लगा
मनमोहन ने कमर कसी
गरीब मसीहा को वो लाये
बोलो– देखो इसको सम्हालो
फिर से जीवन तुम डालो"।
लोगों ने देखा हँसकर बोला–
कितना अच्छा योग बना है
चाल को देखो समझो पहचानो
एक तीर से दो को मारो
ये डूबेगी इसको लेकर
खेल खत्म दोनों का होगा"।
ये डाक्टर था बड़ा अनूठा
उसने देख परख कर समझ लिया
नब्ज़ पकड़ पहचान लिया
बोला–
साथ चलेंगे साथ रहैंगे राष्ट्र प्रगति के पथ पर सब
रेल बढ़ेगी राष्ट्र उठेगा तब खुशहाल बनेंगे सब।"
मूल मंत्र फिर बदल दिया
बाजी को उसने पलट दिया।
बोला– जितना चाहे खर्च करो
बस दौड़ो भागो तेजी से हरदम
नयी जवानी आ जायेगी।
कीमत अपनी कम कर दो
गरीब को राहत दे दो
नेक दुआएं मिल जायेंगी
आमदनी भी बढ़ जायेगी।''
सब के सब सकते में थे
– क्या संभव है यह?
पर सब खुश भी थे।
नहीं पिलायी इसने घुट्टी
काट छाँट भी नहीं करी।
सो धीर धरी सबने मन में
और मिल जुलकर फिर काम किया
जैसा बोला इसने वो मान किया।
सब कुछ बदल गया तब
घटी कीमतें, मिलीं दुआएं, बढ़ा मुनाफा
लक्ष्मी जी ने वास किया।
दुनिया में सबसे अव्वल नम्बर से
सभी इम्तहानों को पास किया।
अब काया इसकी पलट गयी है
दुनियाँ भर से सब आते हैं
प्रोफेसर से सीख यही लेकर जाते हैं
– रेल मेल की भाषा है रेल मेल की बोली है
रेल मेल चलाती है रेल मेल बढ़ाती है
खुशहाली फैलाती लाती है।
मूल मंत्र है सीधा साधा-
कीमत अपनी कम कर लो
वजन उठाओ ज्यादा से ज्यादा
दौड़ो भागो तेजी से हरदम।
भला गरीबों का हो जिसमें
ऐसा ही कुछ काम करो
ऐसा ही बस काम करो।।
फर्ज़ और क़र्ज़
हक़ीकत बयाँ करूँ।
तेरा ये क़र्ज़ है -
दिलकश ज़ुबां कहूँ।
क़र्ज़ और फर्ज़ में तकरार हो,
तो ये हक़ अदा करूँ ।
बेशक, सर हो क़लम तो हो,
क़लम को न क़लम करूँ ।
परिचारिका
फिल्मी तारिका से कम नहीं
आस्मान पर उड़ती है
पर ज़मीन पर चलती है।
सभी की देखभाल
अन्नपूर्णा का काम
हर समय अपने पैरों पर खड़ी
बिना किसी के सहारे अपने भरोसे
दुनिया घूमती है दुनिया देखती है
दुनिया को साफ दिखती है -
किसी का सहारा न लो
अपने पैरों पर खड़े हो
बन – ठन कर रहो, पर तन कर रहो
हौसला सातवें आस्मान पर हो
दुनिया छोटी है मुश्किल नहीं
अपनी मु्ट्ठी में कर लो
बस अपने सहारे से रहो ।
आँगल देश की भाषा
आँगल भाषा बोली जाती है
दुनिया भर में
हर कोने में।
इसका प्रेमी तुमको दुनियाँ में
सभी जगह मिल जायेगा
इसको जानोगे तब ही कुछ पाओगे।
नहीं पता था मुझको लेकिन
आँगल देश के पश्चिम में
वेल्स नाम का प्रान्त है कोई
वहाँ पर इसको
नहीं जानता हर कोई
नहीं प्रेम है सबको इससे
नहीं बोलता हर कोई।
मैं अज्ञानी था
नहीं पता था मुझको बिलकुल
चिराग तले पर अन्धकार इतना होगा
जिसे नहीं जानता हर कोई
नहीं पता है सबको इसका
नहीं जानता हर कोई ।
विमान परिचर
पर नहीं उड़ाता उसको मैं।
खाना सबको खिलवाता हूँ
पर नहीं उड़ाता उसको मैं।
हवाई जहाज के हर बन्दे का
ध्यान मुझे बस रहता है
उनकी हर आज्ञा मंजूर मुझे है
और नहीं उड़ाता उसको मैं।
पाइलट तो बस ध्यान मग्न है
गन्तव्य पर पहुचाना सब को है
और नहीं कुछ ध्यान में उनके
फिर भी नहीं उड़ाता उनको मैं।
सोच रहे हो -
क्या करता हूँ ?
कौन हूँ मैं ?
हवाई जहाज में काम मैं करता
विमान परिचर कहलाता हूँ मैं
इसका सब कुछ मेरा कार्य क्षेत्र है
पर नहीं उड़ाता उसको मैं।
आखिर क्यों?
कल उनसे मेरी मुलकात होनी थी।
बहुत ज्यादा खुश था मैं
कल उनसे मेरी बात होनी थी।
बहुत गर्म जोशी से मिला था
तहे दिल से स्वागत किया था उनका।
मैं खुश था
उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी
बहुत प्रेम भावसे मिले थे मुझसे।
मैंने पूछा - कैसे हैं?
उन्होंने कहा - कैसे हो?
मैं खुश - उन्होंने पहचान लिया मुझे !
आखिर भूलते कैसे
सुबह शाम का साथ था
बहुत करीब का रिश्ता था हमारा।
मैंने बात शुरू की
जहाँ छोड़ी थी बरसों पहले।
उनके चेहरे का भाव बदल गया।
मैं पढ़ नहीं पया उसे -
वो भूल गये थे मुझे ?
न पहचानने की कोशिश ?
न जाने क्या ?
मैं सकते में था
रंग - रूप में परिवर्तन -
बीते दिनों के अनुपात में पूरा।
रंग - ढ़ंग में परिवर्तन -
बिना किसी अनुपात में पूरा।
आखिर क्यों?
मैं बरसों बाद भी वहीं खड़ा था
वो बदल गया था
आखिर क्यों ?
मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008
कर्मों का लेखा होगा
कहकहों की गूँज लगाकर
हर महफिल की शान बना रहता था
लगता था - कल था ये
कल फिर होगा
खुश ही रखेगा सबको
ज्ञान ध्यान की बात बताकर
अपने अनुभव का मंथन कर
कुछ मूल मंत्र यह दे जायेगा।
क्या मालूम? पता था किसको?
यह लेटा होगा आज धरा पर
चुप बिलकुल शान्त पड़ा सोयेगा
अश्रु भरी आँखें होंगी सब की
जो भी मिलने आया होगा
महफिल में सन्नाटा होगा।
है मालूम पता है सबको
पूजा होगी मंत्र जाप तर्पण होगा
फिर अग्निदेव को देकर उसको
सब अपनी राह निकल जायेंगे
है मालूम पता है सबको
इस धरती पर फिर
ईशदेव होंगे, कर्मों का लेखा होगा
नहीं साथ में कोई होगा
बस कर्मों का लेखा होगा।
फौजी बाप
एक बूढ़े आदमी से।
उसने अपने बड़े लड़के को
फौज में भेजा था
जब वह लड़ाई में शहीद हो गया
तब दूसरे को फौज में भेज दिया था।
मैं अचम्भे में-कैसा आदमी है?
पूछ बैठा-यह आपने क्या किया?
पहला लड़का काम आ गया
तो दूसरे को झोंक दिया?
अगर इसको कुछ हुआ
भविष्य में आपको कौन देखेगा?
पितरों का तर्पण अर्पण कौन करेगा?
उसने मुझे देखा, बहुत प्यार से कहा-
मैंने एक को युद्ध में भेजा था
वो शहीद हो गया
उसकी जगह खाली हो गई
तो दूसरे को भेज दिया
भाई का अधूरा काम पूरा करेगा
दुश्मन को मार भगाएगा
देश की रक्षा करेगा
हम सब चैन से रहेंगे।
अगर कोई भी बाप अपने बेटे को
फौज में नहीं भेजेगा
दुश्मन हावी हो जाएगा
कोई भी बाप जिन्दा नहीं बचेगा।
सोचा बहू-बेटियों का क्या होगा?
मुझे भविष्य की चिन्ता है
इसलिए ही मैंने बेटे को फौज में भेजा है।