मंगलवार, 11 मार्च 2008

बेटी की अभिलाषा

मैंने पूछा बेटी से अपनी
- बेटी! बता मुझे, तेरी अभिलाषा क्या है?'
कुछ सोचा उसने
फिर बोली मुझसे
वो तन के

- उन्मुक्त गगन में उड़ जाऊँ
नभ को छू लूँ , पंछी बन।
मैं डोलूँ बाघिन सी, निडर
जिस ओर चलूँ हट जायें सभी
रास्ता दें, झुक जायें सभी।
रण में डट जाऊँ लक्ष्मीबाई सी
रास्ता करलें वीर सभी।
आ जाऊँ कहीं जो राजनीति में
इन्दिरा गाँधी सी डट जाऊँ मैं।

नहीं चाहिये मुझको कुछभी
झुमका, चन्दन, बिंदिया, कंगन।
देना हो दे देना मुझको,
इतना बस वरदान प्रभू

जीवन मैं जी लूँ अपने ढंग से
लिख दूँ नये कानून नियम।
बालाऔं के मुँह से हट जायें
आँसू, रोना, चिन्ता की रेखाऐं सभी।
फिर कोई नहीं बोले इस युग में
"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में दूध और आँखों में है पानी।"(1)


(1)राष्ट्र कवि आदरणीय स्वर्गीय श्री मैथली शरण गुप्त जी की रचना 'यशोधरा' से।

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