बुधवार, 15 जुलाई 2015

फुटकर द्वैतिकाऐं

देखा जो  उनको , घर  पर  रकीब  के।
नज़र से हमको अपनी , ऐतबार उठ गया।।

कहें किससे, वो गिले शिकवे शिकायत सभी।
न तुम करीब हो, न मैं खुद अपने ही पास हूँ।।

मिन्नतें  कीं   हैं  इस कदर ।
रब दस बार मिल गया होता।।

कैसे कहदूँ वो बात कभी जो तुमसे कहनी थी।
तुम वो नहीं रहे और अब, मैं भी बदल गया हूँ।।

सच नहीं है कि मुहब्बत न रही मुझे, या मैं बदल गया हूँ।
दिल में अपने ही देखिये जो पहले था, अब नहीं  है वो।।

हम न कह पाये तो क्या, तुमने देखा था हमेशा।
फिर क्यों रह गया दफन, इश्क सीने में हमारे।।

कोशिशें तमाम कीं, ता उम्र लगा रहा।
न बुझ सकी, जो लगी सीने में थी हमारे।

मैंने पूछा भगवन से, बोलो! - कैसे तुम्हारी भक्ति हो।
बोले धूप दीप न लकड़ी-चन्दन मन के अन्दर बाती हो।।

सोचा था कहाँ से लाकर देगा, इतना जो माँग लिया था मैंने।
वो खुदा है, देकर तुम्हें, उसने बक्श दी हर एक दौलत मुझको।।

सोचा था कहाँ से लाकर देगा, इतना जो माँग लिया था मैंने।
वो खुदा है, देकर तुम्हें, मुझको बक्शी हर एक दौलत उसने।।

रब जाने क्या रुख लेगी महफिल, क्या हश्र बनेगा मसले का।
इस महफिल के सभी जानवर, अपनी ही बोली में बोल रहे हैं।।

तरक्की दर तरक्की , इस मकाँ पर आ गया है आदमी ।
अदमी  को  आदमी , अब  लगता नहीं  है  आदमी।।

आदमी और  इन्सान में, अब  फर्क  है  इतना।
इन्सान को, पहचानता बिलकुल नहीं है आदमी।।

माना जी भर गया आपका, तबियत बहल गयी।
अब इस खाकसार को, यूँ बे-गैरत न कीजिये।।

मजनू सी दीवानगी नहीं, न रोमियो सी कुर्बानगी, न है फरहाद सा हौसला।
शाहजहाँ सी दौलत भी नहीं, यकीनन अपना है  अन्दाज़-ए-इश्क और।।

तुमसा ही एक ज़र्रा हूँ, मेरा नाम न पूछे कोई।
मेरे काम को देखो, मेरे काम से जानो मुझको।।

परवाने खाक हो गये, किसी ने खबर भी न ली।
शम्मा का जलना, मगर हर एक शक्स ने देखा।।

हजारों को हजम करके, शम्मा  रोशन  चिराग है।
कसूर क्या था बिचारों का, जो नाहक खाक हो गये।।

सार है सब ग्रंथका, सबसे बड़ा यह सत्य है।
कर भला जो और का, तेरा भला हो जायेगा।।

दिमाग से सोचो, फिर खून पसीने से सींचो उसको।
खुद अपने आप तो, हाथों पर लकीर नहीं बनती।।

मैं मझधार में तूफाँ से उलझा, तू हँसता है साहिल पे खड़ा।
एक बार तो आकर देखा यहाँ, यह काम नहीं है बचकाना।।

हर मुँह में रोटी होगी, सबके हाथों को काम मिलेगा।
ये नक्शा है मंजिल का मेरी, आँखों में आया ख्वाब नहीं है।

कस्तूरी हिरन ढूँढते हैं, चारों ओर बारबार लगातार।
जानते नहीं कि उन्हीं के अन्दर है, जिसे ढूँढते हैं वो।।

घर तमाम रोशन, कर दिया चिराग ने।
फिर इसे आफताब, क्यों न कहें हम।।

कैसे कहूँ तुमको, क्या सोचोगे?
हाँ कहो पहले, तो बताऊँ तुमको।।

शनिवार, 7 मार्च 2015

क्यों हूँ?


सत्य की पहुँच से दूर है, जहाँ हूँ मैं।
जहाँ हूँ मैं वहाँ कोई आवाज़ नहीं आती

नहीं आती है कोई चीख किसी की
किसी की सुनता नहीं मैं अकेला हूँ

मैं अकेला हूँ, मेरे साथ नहीं है कोई
है कोई नहीं यहाँ, मेरी आत्मा भी नहीं है

नहीं है मेरा ज़मीर, मर गया है
गया है सब कुछ कहाँ? मुझे नहीं पता

नहीं पता - कौन हूँ मैं, क्यों हूँ?
क्यों हूँ? जहाँ परछाईं भी नहीं सत्य की।