सोमवार, 31 अगस्त 2009

मेरी बेटी की बोली

तुम ने आज फिर
जिद की है।
कहा है - कि मैं एक कविता कहूँ।

तेरी बोली ही कविता है - अलंकृत सत्य सी।
तेरी बोली संगीत है - सात सुरों का।
एक चित्र है - सतरंगी इन्द्र धनुष सा।
एक विचार है - संत स्वभाव का।
एक कर्म है - अर्जुन से कर्मवीर का।
एक धर्म है - युधिष्ठिर से धर्मवीर का।

तेरी बोली, रस की गोली है।
शान्त करती है मन को,
और बन जाती है
मेरी नयी कविता।

कितनी अच्छी है, प्यारी है,
तेरी बोली।
मेरी बेटी की बोली।।

रविवार, 30 अगस्त 2009

भीड़

भीड़
यहाँ, वहाँ
सभी जगह व्याप्त है।

अपने में,
विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को समेटकर
कितनी अशान्त है।

भीड़ का एक व्यक्ति दूसरे से
हर बात में
कितना भिन्न है।

परन्तु
यह आवाज़ तो हर तरफ से आती है
'मुझे', 'यहाँ' और 'इस तरफ'।