जब भी सोचता हूँ अपने बारे में
तो पाता हूँ
स्वयं को बँधा
अपने परिवार की
पीढि़यों की लड़ी में पड़ी
एक कड़ी सा,
जिसकी पहचान है, महत्व है
पिछली कड़ी को
अगली कड़ी से जोड़ने में।
एक तरफ हैं
मेरे माता और पिता ।
जब देखता हूँ उनको
उनमें छिपा एक चेहरा पाता हूँ
जाना पहचाना सा
वही माथा, आँख, नाक, होठ और ठोड़ी।
बिलकुल मेरी तरह।
क्या कहूँ इन्हें-
अतीत की निशानी या भविष्य का बिम्ब?
माना ये पिछली पीढ़ी के प्रतीक हैं
पर हैं भविष्य - मेरा अपना भविष्य
वह शायद ऐसा ही होगा।
दूसरी तरफ हैं मेरे बच्चे।
नन्हे, नादान, बाल क्रीड़ा में मग्न।
इनमें भी एक चेहरा छिपा है।
वही नाक, कान, आँख और होठ
वही आदत, शैतानी, वही मस्ती
याद दिलाते हैं मुझे
मेरा बचपन, मेरा अतीत।
ये कल की धरोहर हैं
हमारा भविष्य हैं ये लोग।
पर मैं तो देखता हूँ इनमें
अपना अतीत, बस अपना अतीत
बहुत कुछ ऐसा ही तो था।
इस अतीत और भविष्य की कड़ी में बंधा
सोचता रहता हूँ -
यह अतीत मेरा भविष्य है
और यह भविष्य मेरा अतीत।
समझ नहीं पाता-
हम अतीत से भविष्य में जा रहे हैं,
या भविष्य से अतीत में?
1 टिप्पणी:
हर्ष जी,बहुत बढिया रचना है।बहुत सुन्दर भावों के साथ बुनी आप की कविता में बहुत गहरे भाव हैं।
इस अतीत और भविष्य की कड़ी में बंधा
सोचता रहता हूँ -
यह अतीत मेरा भविष्य है
और यह भविष्य मेरा अतीत।
समझ नहीं पाता-
हम अतीत से भविष्य में जा रहे हैं,
या भविष्य से अतीत में?
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