छोटी बच्ची चहक उठी
चटक मटक कर बोली मुझसे
अॅं कल मेरे! क्या करते हो
कमरा तुमने बंद किया है
कुर्सी पर अकडे बैठे हो
दूर बहुत हो सब लोगों से
कोई बात नहीं तुमसे करता है
मिलने में भी डर लगता है
इस तरह अकेले बैठे ठाले
क्या मिलता है तुमको बोलो
मैं चुप, बिलकुल चुप था
सोच रहा था क्या बोलूं
ये बात पते की बोल रही है
कड़वा सच भी घोल रही है
इतने सारे लोग यहां हैं
भूख प्यास की फिकर नहीं है
घर जाने की किसको चिंता
चौबीस घंटे लगे हुए हैं
मुस्काई गुडिया
फिर बोली मुझसे –
कमरा छोड कर अंकल निकलो
बाहर जा कर सबको देखो
मिलकर उनके साथ में खेलो
कंधे से कंधा टकराओ
जोश में उनको लेकर आओ
हंसकर उनसे बात करो तुम
गलती सब की माफ करो तुम
गुस्सा बिलकुल करो नहीं तुम
हिल मिल कर सब साथ रहेंगे
मिल जुल कर सब काम करेंगे
झट पट - झट पट खत्म करेंगे
काम सभी फिर और करेंगे
प्यार भी तुमको और करेंगे
काम समय पर खत्म भी होगा
सबके दिल में खुशी भी होगी
नाम भले ही भूल वो जायें
काम हमेशा याद रखेंगे
मैं असमंज में सोच रहा था
सही गलत को तोल रहा था
गुड़िया ने दुविधा समझी
प्यार से मुझसे फिर बोली -
अंकल मेरे मान भी जाओ
कमरे से बाहर तो आओ
हंस कर सबको गले लगओ
चशमा अपना साफ करो तुम
नयी नजर से देखो अब तुम
मैंने उसकी बात को माना
कमरे से बहर मैं आया
चशमा अपना दूर किया
नयी नजर से देखा सब कुछ
हिला दिया फिर अंजर पंजर
बदला गया तब सारा मंजर
सबने मिल कर काम किया
खुशी – खुशी हर रोज किया
जल्दी जल्दी खत्म किया
नैया अपनी पार लगी तब
मंजिल को पाया सबने
उनको खूब सराहा सबने
अब जाने की बारी आयी
बार-बार मैं सोच रहा हूं -
कैसे दूं मैं तुम्हें विदाई?
क्या बोलूं?
क्या बांधूं के रख दूं साथ तुम्हारे?
गुड़िया फिर से नजर में आई
एक बात फिर जहन में आई
जो कुछ सीखा मैंने तुमसे
मैं वापस तुमको भेंट करूंगा
यह तोहफा मेरा साथ में रखना
कान खोल कर ध्यान से सुनना
तुम भी जब फंस जाओ कहीं पर
मेरी बातें ध्यान में रखना
काम सभी के साथ में करना
चशमा अपना बदल के रखना
नयी नजर से देखा करना
बस अपना चशमा बदल के रखना
चशमा अपना बदल के रखना
यह मेरी कविताओं का छोटा संग्रह है। अपने विचार जरूर व्यक्त करें मुझे प्रसन्नता होगी।
शनिवार, 19 मार्च 2011
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
अपने आप से नाराज़ हूं मैं
नाराज़ हूं मैं
बहुत नाराज़ हूं मैं
तुमसे नहीं, किसी और से नहीं
बस अपने आप से नाराज़ हूं मैं
क्यों नाराज़ हूं मैं?
जानता नहीं हूं मैं
मगर बहुत नाराज़ हूं मैं
मेरा कहा किसी ने सुना नहीं?
मेरा कहा किसी ने किया नहीं?
नहीं नहीं ऐसा नहीं है
मैंने कुछ भी कहा ही नहीं है
फिर भी बहुत नाराज़ हूं मैं
कुछ चाहा मिला नहीं?
नहीं मैंने कुछ चाहा ही नहीं
जो मिला, जितना मिला
बस उसी में खुश
पर फिर भी न जाने क्यों
बहुत नाराज़ हूं मैं
कहां आ गया हूं मैं
क्यों आ गया हू मैं
नहीं जानता –
रास्ता कहां है, जाना किधर है?
कहां जाउंगा? नहीं जनता
मगर जानता हूं चला जाउंगा
इस अंधकार से निकल
अपनी मंजिल तक पहुंच जाउंगा
पर न जाने क्यूं
बहुत नाराज़ हूं मैं
बस अपने आप से नाराज़ हूं मैं
बहुत नाराज़ हूं मैं
तुमसे नहीं, किसी और से नहीं
बस अपने आप से नाराज़ हूं मैं
क्यों नाराज़ हूं मैं?
जानता नहीं हूं मैं
मगर बहुत नाराज़ हूं मैं
मेरा कहा किसी ने सुना नहीं?
मेरा कहा किसी ने किया नहीं?
नहीं नहीं ऐसा नहीं है
मैंने कुछ भी कहा ही नहीं है
फिर भी बहुत नाराज़ हूं मैं
कुछ चाहा मिला नहीं?
नहीं मैंने कुछ चाहा ही नहीं
जो मिला, जितना मिला
बस उसी में खुश
पर फिर भी न जाने क्यों
बहुत नाराज़ हूं मैं
कहां आ गया हूं मैं
क्यों आ गया हू मैं
नहीं जानता –
रास्ता कहां है, जाना किधर है?
कहां जाउंगा? नहीं जनता
मगर जानता हूं चला जाउंगा
इस अंधकार से निकल
अपनी मंजिल तक पहुंच जाउंगा
पर न जाने क्यूं
बहुत नाराज़ हूं मैं
बस अपने आप से नाराज़ हूं मैं
सरफिरे
सर फिर गया था हमारा
गलती की थी हमने
बहुत बड़ी गलती
जान बूझ कर की थी
निकल पड़े थे नंगे हाथ
बढ़ती आग बुझाने
अनजान नहीं थे हम
लड़ाई आर – पार की थी
जानते थे एक ही बचेगा
बाजी जीत लेंगे या तबाह होंगे
शायद जीत कर भी तबाह होंगे
फिर भी कूद पड़े थे
अनजान नहीं थे हम
किसी तगमे का लालच नहीं था
किसी खिताब की चाह नहीं थी
कुछ कर दिखाना नहीं चाहते थे
बस फिजूल का शौक था
हम पूरे होश में थे
पर न जाने क्यों
अजब, शराबी सा नशा था
सबकी सलाह ठुकरादी
किसी की एक न चली
हम न माने
किसी तरह न माने
बस कूद पड़े
जानते न थे
यह अजब खेल है
हारेंगे तो सब मिलकर मारेंगे
जीतेंगे तो घेर कर मारेंगे
बस मौत लिखी है
सबके नाम लिखी है
कोई हट के मरता है
कोई सट के मरता है
कोई खा कर मरता है
कोई भूखा मरता है
बस मरते हैं सभी
जरूर मरते हैं सभी
अजीब खेल है
यहां हारने वाले को
चील कौवे भी नहीं छोड़ते
जीतने वाले की बलि देते हैं
न जाने क्यों
फिर भी बहुत सरफिरे हैं
कूद जाते हैं
न जाने क्यों?
गलती की थी हमने
बहुत बड़ी गलती
जान बूझ कर की थी
निकल पड़े थे नंगे हाथ
बढ़ती आग बुझाने
अनजान नहीं थे हम
लड़ाई आर – पार की थी
जानते थे एक ही बचेगा
बाजी जीत लेंगे या तबाह होंगे
शायद जीत कर भी तबाह होंगे
फिर भी कूद पड़े थे
अनजान नहीं थे हम
किसी तगमे का लालच नहीं था
किसी खिताब की चाह नहीं थी
कुछ कर दिखाना नहीं चाहते थे
बस फिजूल का शौक था
हम पूरे होश में थे
पर न जाने क्यों
अजब, शराबी सा नशा था
सबकी सलाह ठुकरादी
किसी की एक न चली
हम न माने
किसी तरह न माने
बस कूद पड़े
जानते न थे
यह अजब खेल है
हारेंगे तो सब मिलकर मारेंगे
जीतेंगे तो घेर कर मारेंगे
बस मौत लिखी है
सबके नाम लिखी है
कोई हट के मरता है
कोई सट के मरता है
कोई खा कर मरता है
कोई भूखा मरता है
बस मरते हैं सभी
जरूर मरते हैं सभी
अजीब खेल है
यहां हारने वाले को
चील कौवे भी नहीं छोड़ते
जीतने वाले की बलि देते हैं
न जाने क्यों
फिर भी बहुत सरफिरे हैं
कूद जाते हैं
न जाने क्यों?
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
शायद तुम नाराज़ हो मुझसे
सुबह सवेरे उठता हूं
नींद को झझकोड़ कर हटाता
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
छट-पट तैयार
आफिस की भागम-भाग
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
बॉस की सुनी
मातहद को सुनाई
दिनभर कोल्हू का बैल बना
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
शाम, दिन छिपे वापस
थका-मांदा घर लौटता हूं
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
फिर रात
वही घर, वही बिस्तर
करवट बदलता सोता हूं
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
उम्र कट जायेगी यूं ही
घर-आफिस के बीच की दौड़
तुम्हारे ख्याल में गुज़र जायेगी
फिर भी न जाने क्यूं
मुझे लगता है –
तुम शायद नाराज़ हो मुझसे
आस-पास की चोरी
लूट-खसोट, मार-पीट
भष्टचार - चोर बाज़ारी
मंहगाई आत्याचार
मुझे क्यों नहीं दिखता ?
इन्हें हटाने के लिये मैं कुछ नहीं करता !
न जाने क्या सोचता हूं?
बस तुम्हारे ख्याल मैं रहता हूं
कभी-कभी सोचता हूं -
शायद तुम नाराज़ हो मुझसे
मैं क्यों कुछ नहीं करता
क्यों ख्याल में खोया रहता हूं ?
क्यों सपनों मैं सोया रहता हूं ?
मैं नहीं जानता
पर अक्सर सोचता हूं -
तुम बहुत नाराज़ हो मुझसे
नींद को झझकोड़ कर हटाता
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
छट-पट तैयार
आफिस की भागम-भाग
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
बॉस की सुनी
मातहद को सुनाई
दिनभर कोल्हू का बैल बना
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
शाम, दिन छिपे वापस
थका-मांदा घर लौटता हूं
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
फिर रात
वही घर, वही बिस्तर
करवट बदलता सोता हूं
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं
उम्र कट जायेगी यूं ही
घर-आफिस के बीच की दौड़
तुम्हारे ख्याल में गुज़र जायेगी
फिर भी न जाने क्यूं
मुझे लगता है –
तुम शायद नाराज़ हो मुझसे
आस-पास की चोरी
लूट-खसोट, मार-पीट
भष्टचार - चोर बाज़ारी
मंहगाई आत्याचार
मुझे क्यों नहीं दिखता ?
इन्हें हटाने के लिये मैं कुछ नहीं करता !
न जाने क्या सोचता हूं?
बस तुम्हारे ख्याल मैं रहता हूं
कभी-कभी सोचता हूं -
शायद तुम नाराज़ हो मुझसे
मैं क्यों कुछ नहीं करता
क्यों ख्याल में खोया रहता हूं ?
क्यों सपनों मैं सोया रहता हूं ?
मैं नहीं जानता
पर अक्सर सोचता हूं -
तुम बहुत नाराज़ हो मुझसे
गुरुवार, 19 नवंबर 2009
लालच की पूजा
सुनते हैं भगवान होता है
गरीब का अन्नदाता ,
अमीर का रक्षक।
पूजते हैं दोनों
बड़ी लगन से
बहुत ही मन से
भिन्न भिन्न रूपों में
विभिन्न तरीकों से
एक ही ध्यान से
थोड़े लालच से ।
सोचते हैं
जगतपति हमें कुछ दे जायेगा
तो उसका क्या जायेगा।
आदमी
सुबह से शाम तक
कोल्हू के बैल सा पिसता
आदमी, चला जाता है
तपती रेत पर दोपहर को
धूप में, अपने पके बाल लिये
अपना खून पसीना एक करने।
अपनी जी तोड़ मेहनत के बाद भी
जीता है निस्तेज, संध्या के सूर्य सा
पर ऐसे नहीं
पहले वह मरता है,
फिर जीता है।
आत्म त्याग [1]
कल रात
अमीरी का लिबास ओढ़े
गर्म कपड़ों में लिपटा हुआ
मैं, दिल्ली प्रशासन की गाडि़यों में
सड़क पर फैली हुई
बिजली के खम्बों की रोशनी में
गरीबी के सताये
गरीबों को खोजने गया।
प्रशासकीय कर्मचारियों की सहायता से
बहुत खोजने पर
एक व्यक्ति को मैंने
एक दुकान के बाहर सोते देखा।
उसके पास ओढ़ने को
रेशमी शाल नहीं
एक फटे टाट के सिवा, कुछ न था
और बिछाने के लिये
डनलप के गद्दे नहीं
थोड़ा सा पुआल था।
मैंने उसे जगाया
और एक स्वेटर देने लगा
उसने लेने से इन्कार कर दिया
और बोला
- मेरे पास सब कुछ है,
देखते नहीं
पिछले साल खरीदा यह पाजामा
और गर्मियों मे खरीदी यह कमीज
क्या मेरे लिये काफी नहीं?
यह स्वेटर उधर सोते हुए आदमी को दे दो
उसके पास,
पहनने को फटी लंगोटी है
और ओढ़ने को कुछ नहीं।"
इतना कहने के बाद
वह अपने बिस्तर में घुसकर सो गया
उन बर्फीली हवाओं में
उसका आत्म त्याग देख
मैं ठगा सा रह गया।
[1] सन् 1974 में लिखी एक सत्य घटना पर आधारित कविता जो कि उस समय समाज सेवा करते समय घटी थी।
अमीरी का लिबास ओढ़े
गर्म कपड़ों में लिपटा हुआ
मैं, दिल्ली प्रशासन की गाडि़यों में
सड़क पर फैली हुई
बिजली के खम्बों की रोशनी में
गरीबी के सताये
गरीबों को खोजने गया।
प्रशासकीय कर्मचारियों की सहायता से
बहुत खोजने पर
एक व्यक्ति को मैंने
एक दुकान के बाहर सोते देखा।
उसके पास ओढ़ने को
रेशमी शाल नहीं
एक फटे टाट के सिवा, कुछ न था
और बिछाने के लिये
डनलप के गद्दे नहीं
थोड़ा सा पुआल था।
मैंने उसे जगाया
और एक स्वेटर देने लगा
उसने लेने से इन्कार कर दिया
और बोला
- मेरे पास सब कुछ है,
देखते नहीं
पिछले साल खरीदा यह पाजामा
और गर्मियों मे खरीदी यह कमीज
क्या मेरे लिये काफी नहीं?
यह स्वेटर उधर सोते हुए आदमी को दे दो
उसके पास,
पहनने को फटी लंगोटी है
और ओढ़ने को कुछ नहीं।"
इतना कहने के बाद
वह अपने बिस्तर में घुसकर सो गया
उन बर्फीली हवाओं में
उसका आत्म त्याग देख
मैं ठगा सा रह गया।
[1] सन् 1974 में लिखी एक सत्य घटना पर आधारित कविता जो कि उस समय समाज सेवा करते समय घटी थी।
सोमवार, 31 अगस्त 2009
मेरी बेटी की बोली
तुम ने आज फिर
जिद की है।
कहा है - कि मैं एक कविता कहूँ।
तेरी बोली ही कविता है - अलंकृत सत्य सी।
तेरी बोली संगीत है - सात सुरों का।
एक चित्र है - सतरंगी इन्द्र धनुष सा।
एक विचार है - संत स्वभाव का।
एक कर्म है - अर्जुन से कर्मवीर का।
एक धर्म है - युधिष्ठिर से धर्मवीर का।
तेरी बोली, रस की गोली है।
शान्त करती है मन को,
और बन जाती है
मेरी नयी कविता।
कितनी अच्छी है, प्यारी है,
तेरी बोली।
मेरी बेटी की बोली।।
जिद की है।
कहा है - कि मैं एक कविता कहूँ।
तेरी बोली ही कविता है - अलंकृत सत्य सी।
तेरी बोली संगीत है - सात सुरों का।
एक चित्र है - सतरंगी इन्द्र धनुष सा।
एक विचार है - संत स्वभाव का।
एक कर्म है - अर्जुन से कर्मवीर का।
एक धर्म है - युधिष्ठिर से धर्मवीर का।
तेरी बोली, रस की गोली है।
शान्त करती है मन को,
और बन जाती है
मेरी नयी कविता।
कितनी अच्छी है, प्यारी है,
तेरी बोली।
मेरी बेटी की बोली।।
रविवार, 30 अगस्त 2009
भीड़
भीड़
यहाँ, वहाँ
सभी जगह व्याप्त है।
अपने में,
विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को समेटकर
कितनी अशान्त है।
भीड़ का एक व्यक्ति दूसरे से
हर बात में
कितना भिन्न है।
परन्तु
यह आवाज़ तो हर तरफ से आती है
'मुझे', 'यहाँ' और 'इस तरफ'।
यहाँ, वहाँ
सभी जगह व्याप्त है।
अपने में,
विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को समेटकर
कितनी अशान्त है।
भीड़ का एक व्यक्ति दूसरे से
हर बात में
कितना भिन्न है।
परन्तु
यह आवाज़ तो हर तरफ से आती है
'मुझे', 'यहाँ' और 'इस तरफ'।
गुरुवार, 30 जुलाई 2009
भीड़ में अकेला पन
भीड़ में था मैं खड़ा एकदम अकेला
पास ही में थी खड़ी वो एकदम अकेली
सोच कर कुछ बात फिर वो
बोल उठी मुझ से अचानक
आज फिर हैं साथ दोनों
भीड़ में भी एकदम अकेले।
जिस तरह हों पेड़ वन में
साथ में थे पले बढ़े वो
साथ सदियों से रहे वो
मिल न पाये पर कभी भी
थे साथ हर दम, पर अकेले।
जिस तरह हैं आज फिर हम
भीड़ में भी एकदम अकेले।।
पास ही में थी खड़ी वो एकदम अकेली
सोच कर कुछ बात फिर वो
बोल उठी मुझ से अचानक
आज फिर हैं साथ दोनों
भीड़ में भी एकदम अकेले।
जिस तरह हों पेड़ वन में
साथ में थे पले बढ़े वो
साथ सदियों से रहे वो
मिल न पाये पर कभी भी
थे साथ हर दम, पर अकेले।
जिस तरह हैं आज फिर हम
भीड़ में भी एकदम अकेले।।
शनिवार, 20 जून 2009
अभी कुछ देर है
वो दूर
कौन रो रहा है वहाँ?
क्यों रो रहा है वो?
उसका कोई मर गया है!
किसने मारा? क्यों मारा?
आखिर क्यों मारता है कोई किसी को!
वहाँ वो चीख रहा है
बन्द डिब्बे में जलता.
कराहता, तड़पता, छ्टपटाता.
पिंजड़े में कैद.
वो दूर वहाँ
वो मरता है
बन्द घर में जलता.
मरते हैं दोनों ओर
बस गरीब, निरीह, निसहाय, असमर्थ.
कोई कु्छ कहता क्यों नहीं?
कोई बचाता क्यों नहीं इन्हें?
मारने वाला बडा हो गया है.
बचाने वाला छोटा पड़ गया है.
रक्षक भक्षक बन गया है.
सिद्धर्थ की कहानी पलट गयी है?
हाँ सब कु्छ पलट गया है!
राम राज्य नहीं है यहाँ?
नहीं है!
है तो बस रावण की माया नगरी.
एक दु:स्वप्न सा लगता है.
द्वारिका नरेश अब नहीं हैं यहाँ !
वापस आयेंगे?
पाप का घडा भरने के बाद!
सौंवीं गलती के बाद
शिशुपाल का वध करने.
तब यह तक मुक्त है
मनमानी करने के लिये
रावण के भेष में
सीता हरण के लिये
जटायू से नहीं संभलेगा.
अवधेश के हाथों ही मरेगा.
पाप का घडा है
भरने के बाद ही फूटेगा
अभी शायद देर है.
आप कतार में हैं
आप प्रतीक्षा में रहें
रुकावट के लिये खेद है.
अभी कुछ देर है.
कौन रो रहा है वहाँ?
क्यों रो रहा है वो?
उसका कोई मर गया है!
किसने मारा? क्यों मारा?
आखिर क्यों मारता है कोई किसी को!
वहाँ वो चीख रहा है
बन्द डिब्बे में जलता.
कराहता, तड़पता, छ्टपटाता.
पिंजड़े में कैद.
वो दूर वहाँ
वो मरता है
बन्द घर में जलता.
मरते हैं दोनों ओर
बस गरीब, निरीह, निसहाय, असमर्थ.
कोई कु्छ कहता क्यों नहीं?
कोई बचाता क्यों नहीं इन्हें?
मारने वाला बडा हो गया है.
बचाने वाला छोटा पड़ गया है.
रक्षक भक्षक बन गया है.
सिद्धर्थ की कहानी पलट गयी है?
हाँ सब कु्छ पलट गया है!
राम राज्य नहीं है यहाँ?
नहीं है!
है तो बस रावण की माया नगरी.
एक दु:स्वप्न सा लगता है.
द्वारिका नरेश अब नहीं हैं यहाँ !
वापस आयेंगे?
पाप का घडा भरने के बाद!
सौंवीं गलती के बाद
शिशुपाल का वध करने.
तब यह तक मुक्त है
मनमानी करने के लिये
रावण के भेष में
सीता हरण के लिये
जटायू से नहीं संभलेगा.
अवधेश के हाथों ही मरेगा.
पाप का घडा है
भरने के बाद ही फूटेगा
अभी शायद देर है.
आप कतार में हैं
आप प्रतीक्षा में रहें
रुकावट के लिये खेद है.
अभी कुछ देर है.
शुक्रवार, 19 जून 2009
गाँधीवाद
एक दिन
गाँधीवाद पर बहस हो रही थी.
हमारा विचार था
- हम गाँधीवाद से दूर जा रहे हैं
कुछ लोग कहते थे
- गाँधीवाद अब दूर नहीं !
मैंने सोचा
शायद मैं ही गलत सोचता हूँ.
कुछ दिन बाद वस्त्रों के दाम बढ़ने से
लोग लंगोटी पहनेगे.
जब भूख और मंहगायी कमर तोड़ देगी
तो लाठी का सहारा लेंगे.
फिर लोग उसी को
गाँधीवाद कहेंगे !!
गाँधीवाद पर बहस हो रही थी.
हमारा विचार था
- हम गाँधीवाद से दूर जा रहे हैं
कुछ लोग कहते थे
- गाँधीवाद अब दूर नहीं !
मैंने सोचा
शायद मैं ही गलत सोचता हूँ.
कुछ दिन बाद वस्त्रों के दाम बढ़ने से
लोग लंगोटी पहनेगे.
जब भूख और मंहगायी कमर तोड़ देगी
तो लाठी का सहारा लेंगे.
फिर लोग उसी को
गाँधीवाद कहेंगे !!
शुक्रवार, 22 मई 2009
नहीं घटेगा बढ़ जायेगा
नहीं अगर मैं कुछ बोलूँ -
क्या घटता है मन में मेरे।
कैसे जानेगा कोई
क्या घटता है मन में मेरे ?
सच अगर नहीं बोलूँ -
क्या घटता है मन में मेरे।
कैसे जानेगा कोई
क्या घटता है मन में मेरे ?
सच तो यह है
जो घटता है मन में मेरे
थोड़ा आगे या पीछे
वैसा ही कुछ घटता है
मन में तेरे।
उसे अगर हम लिख जायेंगे
अनुभव से अनुभव जुड़ जायेगा
नहीं घटेगा बढ़ जायेगा।
हम सब मिलकर लिख जायेंगे
क्या घटता है मन में मेरे।
कैसे जानेगा कोई
क्या घटता है मन में मेरे ?
सच अगर नहीं बोलूँ -
क्या घटता है मन में मेरे।
कैसे जानेगा कोई
क्या घटता है मन में मेरे ?
सच तो यह है
जो घटता है मन में मेरे
थोड़ा आगे या पीछे
वैसा ही कुछ घटता है
मन में तेरे।
उसे अगर हम लिख जायेंगे
अनुभव से अनुभव जुड़ जायेगा
नहीं घटेगा बढ़ जायेगा।
हम सब मिलकर लिख जायेंगे
नहीं घटेगा बढ़ जायेगा।
शनिवार, 7 फ़रवरी 2009
चक्रव्यूह में अभिमन्यु
अतीत और भविष्य के बीच फँसा
आदमी रहता है त्रिशंकु सा
जानता नहीं किसे पकड़े-
अतीत को या भविष्य को?
अतीत बीत गया है
वापस नहीं आयेगा।
चला गया है हमेशा- हमेशा के लिये।
अब है तो केवल एक स्वप्न सा
आँख बन्द हो तो सामने है
आँख खुले तो अदृष्य, गायब ।
भविष्य भी अदृष्य है ।
पता नहीं क्या है आने वाले समय में।
उसे खोजना, उसके पीछे भागना व्यर्थ है
जैसे मरीचिका के पीछे भगना।
आँख बन्द हो तो दिखता है कल्पना में
आँख खुले तो गायब।
वर्तमान भी कम नहीं
बस भागता रहता है हर पल
एक दरिया सा बहता है निरंतर
थमता नहीं कि उसे देख सकें
परख कर सकें, पकड़ सकें उसे।
रोक पायें अपने दायरे में।
इन्हीं समस्याओं की त्रिविधा में फँसा आदमी
रह जाता है त्रिशंकु सा,
असमर्थ, निसहाय, अकेला।
जानता नहीं कि क्या करे?
किसे पकड़े? किसे रोक कर रखे?
कैसे निकल पायेगा इस चक्रव्यूह से ?
इस चक्रव्यूह से निकल पाता है
बस वही, जो जानता हो
कि निकलना नहीं है कभी
बस यहीं रहना है।
चक्रव्यूह में अभिमन्यु के समान
अपने मर्यादा चक्र में बंधे
अपना कार्म करते हुए
मोक्ष प्राप्त करना है।
बस यहीं रहना है
चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह।
आदमी रहता है त्रिशंकु सा
जानता नहीं किसे पकड़े-
अतीत को या भविष्य को?
अतीत बीत गया है
वापस नहीं आयेगा।
चला गया है हमेशा- हमेशा के लिये।
अब है तो केवल एक स्वप्न सा
आँख बन्द हो तो सामने है
आँख खुले तो अदृष्य, गायब ।
भविष्य भी अदृष्य है ।
पता नहीं क्या है आने वाले समय में।
उसे खोजना, उसके पीछे भागना व्यर्थ है
जैसे मरीचिका के पीछे भगना।
आँख बन्द हो तो दिखता है कल्पना में
आँख खुले तो गायब।
वर्तमान भी कम नहीं
बस भागता रहता है हर पल
एक दरिया सा बहता है निरंतर
थमता नहीं कि उसे देख सकें
परख कर सकें, पकड़ सकें उसे।
रोक पायें अपने दायरे में।
इन्हीं समस्याओं की त्रिविधा में फँसा आदमी
रह जाता है त्रिशंकु सा,
असमर्थ, निसहाय, अकेला।
जानता नहीं कि क्या करे?
किसे पकड़े? किसे रोक कर रखे?
कैसे निकल पायेगा इस चक्रव्यूह से ?
इस चक्रव्यूह से निकल पाता है
बस वही, जो जानता हो
कि निकलना नहीं है कभी
बस यहीं रहना है।
चक्रव्यूह में अभिमन्यु के समान
अपने मर्यादा चक्र में बंधे
अपना कार्म करते हुए
मोक्ष प्राप्त करना है।
बस यहीं रहना है
चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह।
पैसे का मोल
- लोग मुफ्त की चीज का
मान नहीं करते।'
ये बात वो लोग करते हैं
जो मुफ्त की चीज का
मोल नहीं जानते।
क्या आप नहीं मानते -
दुनियाँ में अच्छा है
जो कुछ भी अच्छा है
सब बस मुफ्त में है?
आपने कभी देखा है?
हवा को कहते -
'पहले पैसे दो, फिर साँस लो।'
इन नदी और झरनों को
बोलते सुना है -
'पानी मत पियो
पहले पैसे दो।'
आपने देखा है -
आकाश को पक्षियों से पैसे माँगते।
पेड़ को माँगते कीमत फल की
फूलों को सुगन्ध की ?
पैसा तो मात्र साधन है
इन्सान से इन्सान के व्यापार का।
व्यवहार का नहीं।
इसे इन्सान ने बनाया है
इसने इन्सान को नहीं।
बात छोटी सी है पर
यकीन नहीं होता ?
बचपन से आँखों पर
पट्टी जो है पैसे की।
पैसा नहीं आता बीच में
जब संबन्ध बनता है
एक आत्मा का दूसरी आत्मा से।
न आता है
आत्मा परमात्मा के बीच में।
वो!
हर बालक के जन्म पर
दिखा देता है - 'देखो यह खाली हाथ है'।
हर मृत के साथ दिखा देता है-
'यह भी खाली हाथ है'।
और साफ-साफ जता देता
मान नहीं करते।'
ये बात वो लोग करते हैं
जो मुफ्त की चीज का
मोल नहीं जानते।
क्या आप नहीं मानते -
दुनियाँ में अच्छा है
जो कुछ भी अच्छा है
सब बस मुफ्त में है?
आपने कभी देखा है?
हवा को कहते -
'पहले पैसे दो, फिर साँस लो।'
इन नदी और झरनों को
बोलते सुना है -
'पानी मत पियो
पहले पैसे दो।'
आपने देखा है -
आकाश को पक्षियों से पैसे माँगते।
पेड़ को माँगते कीमत फल की
फूलों को सुगन्ध की ?
पैसा तो मात्र साधन है
इन्सान से इन्सान के व्यापार का।
व्यवहार का नहीं।
इसे इन्सान ने बनाया है
इसने इन्सान को नहीं।
बात छोटी सी है पर
यकीन नहीं होता ?
बचपन से आँखों पर
पट्टी जो है पैसे की।
पैसा नहीं आता बीच में
जब संबन्ध बनता है
एक आत्मा का दूसरी आत्मा से।
न आता है
आत्मा परमात्मा के बीच में।
वो!
हर बालक के जन्म पर
दिखा देता है - 'देखो यह खाली हाथ है'।
हर मृत के साथ दिखा देता है-
'यह भी खाली हाथ है'।
और साफ-साफ जता देता
पैसा तो बस हाथ का मैल है।
पैसा बस हाथ का मैल है।
स्वार्थ
कैसे होते हैं - माँ बाप
जो लाद देते हैं बोझा
अपने बच्चों पर,
अपनी कामनाओं का
जो पूरी न हो सकीं
और मर गयीं एक जवान मौत।
वे चाहते हैं कि
बच्चे जियें वह जिन्दगी
जो वो जीना चाहते थे
पर उन्हें न मिल सकी ।
इन मृत इच्छाओं के तले
बच्चे दब जाते हैं और
जीते हैं, लाश ढोते हुए।
उसके सड़न की बदबू
उनके नाक और दिमाग में भर जाती है
मार देती है
उनकी हर इच्छा
हर सपना नष्ट हो जाता है।
वो जीते हैं दिशाहीन नाव से
जो ढूँढती है किनारा
फिर अपने बच्चों पर
अपने मृत सपने लाद कर।
क्या यही देंगे?
विरासत में अपने बच्चों को -
ऐसी जिंदगी,
इच्छाओं को मार कर जीने का ढंग?
अच्छा न हो -
कि तोड़ दें हम यह कुचक्र?
और स्वतंत्र जीने दें अपने बच्चों को।
उनके अपने सपनों के साथ
उनकी अपनी दुनिया में।
जो लाद देते हैं बोझा
अपने बच्चों पर,
अपनी कामनाओं का
जो पूरी न हो सकीं
और मर गयीं एक जवान मौत।
वे चाहते हैं कि
बच्चे जियें वह जिन्दगी
जो वो जीना चाहते थे
पर उन्हें न मिल सकी ।
इन मृत इच्छाओं के तले
बच्चे दब जाते हैं और
जीते हैं, लाश ढोते हुए।
उसके सड़न की बदबू
उनके नाक और दिमाग में भर जाती है
मार देती है
उनकी हर इच्छा
हर सपना नष्ट हो जाता है।
वो जीते हैं दिशाहीन नाव से
जो ढूँढती है किनारा
फिर अपने बच्चों पर
अपने मृत सपने लाद कर।
क्या यही देंगे?
विरासत में अपने बच्चों को -
ऐसी जिंदगी,
इच्छाओं को मार कर जीने का ढंग?
अच्छा न हो -
कि तोड़ दें हम यह कुचक्र?
और स्वतंत्र जीने दें अपने बच्चों को।
उनके अपने सपनों के साथ
उनकी अपनी दुनिया में।
त्याग
हम बचपन से
बुढ़ापे तक
एक बात सुनते आये हैं
त्याग ।
ये छोड़ दो इसके लिये ।
वो छोड़ दो उसके लिये ।
जीते हैं कुछ, बहुत कुछ छोड़कर।
न हम खुश होते हैं
न वो, जिसके लिये
छोड़ते हैं सब कुछ ।
हमें ललक रहती है - जो छोड़ा।
परेशानी न हो तो त्याग कैसा ?
वो बोझा ढोता है -
हमने त्याग किया, उसके लिये ।
क्यों छोड़ते हैं हम यह कुछ ?
अच्छा हो हम ऊपर उठें
इस अर्थहीन त्याग से ।
छोड़ दें -
द्वेष, बैमनस्य, बुराई और
अपने कुविचार ।
जियें खुद आराम से और
जीने दें सभी को - स्वतंत्र
बिना किसी बोझ तले दबे
स्वतंत्र जीने दें ।
बुढ़ापे तक
एक बात सुनते आये हैं
त्याग ।
ये छोड़ दो इसके लिये ।
वो छोड़ दो उसके लिये ।
जीते हैं कुछ, बहुत कुछ छोड़कर।
न हम खुश होते हैं
न वो, जिसके लिये
छोड़ते हैं सब कुछ ।
हमें ललक रहती है - जो छोड़ा।
परेशानी न हो तो त्याग कैसा ?
वो बोझा ढोता है -
हमने त्याग किया, उसके लिये ।
क्यों छोड़ते हैं हम यह कुछ ?
अच्छा हो हम ऊपर उठें
इस अर्थहीन त्याग से ।
छोड़ दें -
द्वेष, बैमनस्य, बुराई और
अपने कुविचार ।
जियें खुद आराम से और
जीने दें सभी को - स्वतंत्र
बिना किसी बोझ तले दबे
स्वतंत्र जीने दें ।
सोना खरा होता है
तुम्हें देखकर - लगता है मुझे
वक्त बदला ही नहीं
थम गया है वहीं - जहाँ पर था कभी।
वही काले घने केश - वैसे ही हैं जैसे थे कभी
कुछ और निखार है
बादल में सुनहरी किरणें हों जैसे।
वही निश्छल, मधुर मुस्कान -चारों ओर खुशहाली फैलाती।
अपने अन्दर समाये हुऐ है
वही मोतियों की लड़ी - वैसी ही जैसी थी कभी।
आँख, भौं, पलक और चेहरे की दमक नहीं बदली
न बदली है होठ और गालों की लाली
समय से अछूते रह गये हैं सभी
जैसे समय ही थम गया हो वहीं - जहाँ पर था कभी।
बदला है तो बस
आँख के रास्ते दिखने वाला
मन और दिमाग का भाग
ये मजबूत हो गया है, पूरी तरह पक कर
जैसे मिट्रटी का बर्तन।
इसने अपना आकार बनाया है -
परिपक्व, अनोखा सबसे अलग।
अपना व्यक्तित्व गढ़ लिया है - अनूठा बेजोड़।
यह बता रहा है -
इसने अपने को तैयार कर लिया है
अडिग रहने को, तूफान कैसा भी हो
यह जान गया है -
तूफान आयेंगे - जायेंगे
जो बह जायेंगे, टिक नहीं पायेंगे।
जो रह जायेंगे - अडिग तपस्वी से
टिक जायेंगे अपना स्थान बना कर
फिर दूसरे तूफान का सामना करने को।
यह सब देखकर कितना अच्छा लगता है मुझे
लगता है किसी ने सच ही कहा है-
सोना तपता है, तो और खरा होता है।।
वक्त बदला ही नहीं
थम गया है वहीं - जहाँ पर था कभी।
वही काले घने केश - वैसे ही हैं जैसे थे कभी
कुछ और निखार है
बादल में सुनहरी किरणें हों जैसे।
वही निश्छल, मधुर मुस्कान -चारों ओर खुशहाली फैलाती।
अपने अन्दर समाये हुऐ है
वही मोतियों की लड़ी - वैसी ही जैसी थी कभी।
आँख, भौं, पलक और चेहरे की दमक नहीं बदली
न बदली है होठ और गालों की लाली
समय से अछूते रह गये हैं सभी
जैसे समय ही थम गया हो वहीं - जहाँ पर था कभी।
बदला है तो बस
आँख के रास्ते दिखने वाला
मन और दिमाग का भाग
ये मजबूत हो गया है, पूरी तरह पक कर
जैसे मिट्रटी का बर्तन।
इसने अपना आकार बनाया है -
परिपक्व, अनोखा सबसे अलग।
अपना व्यक्तित्व गढ़ लिया है - अनूठा बेजोड़।
यह बता रहा है -
इसने अपने को तैयार कर लिया है
अडिग रहने को, तूफान कैसा भी हो
यह जान गया है -
तूफान आयेंगे - जायेंगे
जो बह जायेंगे, टिक नहीं पायेंगे।
जो रह जायेंगे - अडिग तपस्वी से
टिक जायेंगे अपना स्थान बना कर
फिर दूसरे तूफान का सामना करने को।
यह सब देखकर कितना अच्छा लगता है मुझे
लगता है किसी ने सच ही कहा है-
सोना तपता है, तो और खरा होता है।।
सभ्यता की पहचान
कचरे के ढ़ेर पर -
प्लास्टिक की थैलियाँ
भिनभिनाती मक्खियाँ
पास खड़ा कुत्ता
कचरे को कुरेदती
उसमें खाना ढूँढती
लाचार आखें
पास ही
लुका - छिपी खेलते बच्चे।
यह सब देखकर मैं समझ गया
मैं जंगल के बाहर आ गया हूँ
किसी शहर के पास हूँ।
अब जंगली लोगों का
कोई भय नहीं
मैं अब सभ्य लोगों के बीच हूँ।
मैं समझ गया-
मैं सभ्य लोगों के बीच हूँ।
प्लास्टिक की थैलियाँ
भिनभिनाती मक्खियाँ
पास खड़ा कुत्ता
कचरे को कुरेदती
उसमें खाना ढूँढती
लाचार आखें
पास ही
लुका - छिपी खेलते बच्चे।
यह सब देखकर मैं समझ गया
मैं जंगल के बाहर आ गया हूँ
किसी शहर के पास हूँ।
अब जंगली लोगों का
कोई भय नहीं
मैं अब सभ्य लोगों के बीच हूँ।
मैं समझ गया-
मैं सभ्य लोगों के बीच हूँ।
दंगे
जब - जब दंगे होते हैं
हम नंगे होते हैं।
जब - जब दंगे होते हैं
हमारे ऊपर से
'समाज' की चादर
खींच ली जाती है।
हमारे 'सभ्यता' के कपड़े
नोच लिये जाते हैं।
हम नंगे हो जाते हैं
-------
जब - जब दंगे होते हैं
हम अपनी 'समाज' की चादर
फाड़ देते हैं।
अपने 'सभ्यता' के कपड़े
नोच कर उतार फेंकते हैं
नंगे हो जाते हैं
जब - जब दंगे होते हैं
हम नंगे होते हैं।
हम नंगे होते हैं।
जब - जब दंगे होते हैं
हमारे ऊपर से
'समाज' की चादर
खींच ली जाती है।
हमारे 'सभ्यता' के कपड़े
नोच लिये जाते हैं।
हम नंगे हो जाते हैं
-------
जब - जब दंगे होते हैं
हम अपनी 'समाज' की चादर
फाड़ देते हैं।
अपने 'सभ्यता' के कपड़े
नोच कर उतार फेंकते हैं
नंगे हो जाते हैं
जब - जब दंगे होते हैं
हम नंगे होते हैं।
शाकाहारी कुत्ते
दिखने में बड़ा था
ऊँचा कद, लम्बा शरीर
भारी आवाज़, सब मिलाकर
पीटर एक खतरनाक कुत्ता था
हमारे मुहल्ले के कु़त्तों का सरदार भी
सभी उसका रोब मानते थे
उसके पीछे दुम हिलाते थे।
हम सब बच्चे भी उसको मानते थे
जब कहीं आता दिखाई पड़ता
पता नहीं डर से या आदर से
सीधे खड़े हो जाते थे।
जब कुछ बदमाशी मन में होती
पता नहीं कैसे भाँप लेता था
घुर - घुर करता रास्ता रोक लेता था।
दिनभर-रातभर चौकसी करना - उसका यही काम था।
क्या मजाल कोई चोर उधर मुँह करे।
इतना ही नहीं आस पास के मुहल्ले वाले भी
सुरक्षित महसूस करते थे।
हम सभी को गर्व था
हमारे मुहल्ले में बाहर से चोर नहीं आया था
बाहर के चोर ने चोरी नहीं की थी।
हमारे मुहल्ले में कोई चोर नहीं था
अन्दर के चोर ने चोरी नहीं की थी।
एक दिन बहुत असाधारण बात हुयी
हम सब अचम्भे में यह कैसे हुआ।
पुलिस आयी और नुक्क्ड़, के मकान से
किरायेदार को पकड़कर ले गयी।
सुना गया उन्होंने गबन किया था
लाखों का गबन किया था
बैन्क को जमकर लूट लिया था।
हम सबने आपात कालीन मीटिंग बुलाई
चर्चा हुयी यह कैसे हुआ-
इतना बड़ा चोर, हमारे बीच
किसी को खबर भी नहीं
हमको न रही न सही
सूँघकर जान लेने वाले पीटर को भी नहीं?
बहुत विचार किया
कुछ समझ नहीं आया।
कुछ देर बाद
हम सब अपने-अपने घर चले गये।
प्रश्न हमारे साथ हमारे घर गया।
माँ से पूछा ऐसा कैसे हुआ ।
माँ बोली - शाम को देखना
पीटर कहाँ जाता है।?'
हमारी टीम फिर जुट गयी
दोपहर बाद से ही सारी खबर आने लगी
कब उठा, कब अँगड़ाई ली, किस ओर मुँह किया।
जब धुधलका हो चला
हमने देखा -
पीटर नुक्कड़, वाले घर पर था।
वो उसे रोटी नहीं
माँस, मछली दे रहे थे।
बात हम सब समझ गये
हम लोग बस रोटी देते हैं
ये लोग उसे बोटी देते हैं।
मसालेदार खाना देते हैं
मसाले की गन्ध नाक में भर जाती है।
सूँघने की शक्ति कम हो जाती है
पीटर कुछ बोलता नहीं
खड़ा हो दुम हिलाता है।
हमें विश्वास हो गया-
हमें अन्दर के चोरों को पकड़ना होगा
तो शाकाहारी कुत्तों को लाना होगा।
ऊँचा कद, लम्बा शरीर
भारी आवाज़, सब मिलाकर
पीटर एक खतरनाक कुत्ता था
हमारे मुहल्ले के कु़त्तों का सरदार भी
सभी उसका रोब मानते थे
उसके पीछे दुम हिलाते थे।
हम सब बच्चे भी उसको मानते थे
जब कहीं आता दिखाई पड़ता
पता नहीं डर से या आदर से
सीधे खड़े हो जाते थे।
जब कुछ बदमाशी मन में होती
पता नहीं कैसे भाँप लेता था
घुर - घुर करता रास्ता रोक लेता था।
दिनभर-रातभर चौकसी करना - उसका यही काम था।
क्या मजाल कोई चोर उधर मुँह करे।
इतना ही नहीं आस पास के मुहल्ले वाले भी
सुरक्षित महसूस करते थे।
हम सभी को गर्व था
हमारे मुहल्ले में बाहर से चोर नहीं आया था
बाहर के चोर ने चोरी नहीं की थी।
हमारे मुहल्ले में कोई चोर नहीं था
अन्दर के चोर ने चोरी नहीं की थी।
एक दिन बहुत असाधारण बात हुयी
हम सब अचम्भे में यह कैसे हुआ।
पुलिस आयी और नुक्क्ड़, के मकान से
किरायेदार को पकड़कर ले गयी।
सुना गया उन्होंने गबन किया था
लाखों का गबन किया था
बैन्क को जमकर लूट लिया था।
हम सबने आपात कालीन मीटिंग बुलाई
चर्चा हुयी यह कैसे हुआ-
इतना बड़ा चोर, हमारे बीच
किसी को खबर भी नहीं
हमको न रही न सही
सूँघकर जान लेने वाले पीटर को भी नहीं?
बहुत विचार किया
कुछ समझ नहीं आया।
कुछ देर बाद
हम सब अपने-अपने घर चले गये।
प्रश्न हमारे साथ हमारे घर गया।
माँ से पूछा ऐसा कैसे हुआ ।
माँ बोली - शाम को देखना
पीटर कहाँ जाता है।?'
हमारी टीम फिर जुट गयी
दोपहर बाद से ही सारी खबर आने लगी
कब उठा, कब अँगड़ाई ली, किस ओर मुँह किया।
जब धुधलका हो चला
हमने देखा -
पीटर नुक्कड़, वाले घर पर था।
वो उसे रोटी नहीं
माँस, मछली दे रहे थे।
बात हम सब समझ गये
हम लोग बस रोटी देते हैं
ये लोग उसे बोटी देते हैं।
मसालेदार खाना देते हैं
मसाले की गन्ध नाक में भर जाती है।
सूँघने की शक्ति कम हो जाती है
पीटर कुछ बोलता नहीं
खड़ा हो दुम हिलाता है।
हमें विश्वास हो गया-
हमें अन्दर के चोरों को पकड़ना होगा
तो शाकाहारी कुत्तों को लाना होगा।
अगला और पिछला काँच
मेरी पहली नौकरी लगी थी
बहुत खुशियाँ थी, उमंगे थीं
नौकरी पर जाने से पहले
घर में सब से मिलना था
आशीर्वाद ले, विदा लेना था।
सब से मिला, आशीष लिया
सभी ने अपना थोड़ा-बहुत ज्ञान दिया
ज्ञान का निचोड़ दिया।
डिग्री के घमंड में
कुछ सुना ही नहीं,
कुछ दूसरे कान से निकाल दिया।
एक बात मुझे घर कर गयी थी
याद रहती है हर दम
आज तक रास्ता दिखाती है मुझे
मेरे मामा ने कही थी।
मामा का ट्रक का व्यवसाय था
सगे बेटे सा गर्व था अपने ट्रक पर उन्हें
सगी बेटी सा दुलारते थे उसे।
मैं जब मिला, कहीं जाने को तैयार थे।
सीट पर, स्टेयरिंग पर सवार थे।
बोले -बेटा! आ बैठ।'
मैं बगल की सीट पर बैठ गया।
बोले - आस पास जो देखते हो
उससे सीख लेते हो या नहीं।'
मैं हँसा और बोला
'मामा! यह तो ट्रक है
ट्रक की अगली सीट है
इससे क्या सीख लूँ।'
बोले- बेटा! हँस मत
ट्रक की अगली सीट से दो सीख मिलतीं हैं
देखो यहाँ आगे देखने का काँच बड़ा है
पीछे देखने का काँच छोटा है
कुछ समझे या नहीं।'
मैने कहा - यह तो सत्य है
इसमें समझने को क्या है।'
वो बोले - इसका मतलब समझो।
आने वाले पर आँख जमाकर रखो
आगे आने वाला बहुत कुछ है
उसे देखो, परखो
गन्तव्य पर ध्यान लगाओ
दाँये-बाँये जाओ, रास्ता बनाओ
एक जगह अड़े मत रहो
अड़े के पीछे खड़े मत रहो
जब तक मंजि़ल नहीं आती आगे बढ़ो।
जो बीत गया उससे सीख लो
उसे छोड़ो और आगे बढ़ो।
याद रखो -
जितना बड़ा काँच उतना ज्यादा ध्यान
यह पहली सीख है ।
दूसरी सीख है -
अगर तुम जाग रहे हो
तो कहीं भी, कुछ भी सीख सकते हो
अगर सीखना चाहो तो।
आँख - कान खुले रखो
जो मिले सभी से सीख लो।
बेटा! जीवन सीखने का दूसरा नाम है
इसमें सीखना सबसे बड़ा काम है।'
फिर बोले-अब उतर जा, मुझे जाना है।
रब तेरा भला करेंगे।'
मैं उस दिन जब ट्रक से उतरा था
जिन्दगी की सही सीढ़ी पर चढ़ा था।
मैं अचम्भे में था -
कितना सीधा आदमी, कितना समझदार आदमी
कितनी गूढ़ बात, कितने सीधे शब्द।
और यह तीसरी बात भी
मैंने इसी घटना से सीखी थी।
जो कुछ भी कहो
सीधे, सरल शब्दों में कहो।
सब सीधे, सरल शब्दों में कहो।
बहुत खुशियाँ थी, उमंगे थीं
नौकरी पर जाने से पहले
घर में सब से मिलना था
आशीर्वाद ले, विदा लेना था।
सब से मिला, आशीष लिया
सभी ने अपना थोड़ा-बहुत ज्ञान दिया
ज्ञान का निचोड़ दिया।
डिग्री के घमंड में
कुछ सुना ही नहीं,
कुछ दूसरे कान से निकाल दिया।
एक बात मुझे घर कर गयी थी
याद रहती है हर दम
आज तक रास्ता दिखाती है मुझे
मेरे मामा ने कही थी।
मामा का ट्रक का व्यवसाय था
सगे बेटे सा गर्व था अपने ट्रक पर उन्हें
सगी बेटी सा दुलारते थे उसे।
मैं जब मिला, कहीं जाने को तैयार थे।
सीट पर, स्टेयरिंग पर सवार थे।
बोले -बेटा! आ बैठ।'
मैं बगल की सीट पर बैठ गया।
बोले - आस पास जो देखते हो
उससे सीख लेते हो या नहीं।'
मैं हँसा और बोला
'मामा! यह तो ट्रक है
ट्रक की अगली सीट है
इससे क्या सीख लूँ।'
बोले- बेटा! हँस मत
ट्रक की अगली सीट से दो सीख मिलतीं हैं
देखो यहाँ आगे देखने का काँच बड़ा है
पीछे देखने का काँच छोटा है
कुछ समझे या नहीं।'
मैने कहा - यह तो सत्य है
इसमें समझने को क्या है।'
वो बोले - इसका मतलब समझो।
आने वाले पर आँख जमाकर रखो
आगे आने वाला बहुत कुछ है
उसे देखो, परखो
गन्तव्य पर ध्यान लगाओ
दाँये-बाँये जाओ, रास्ता बनाओ
एक जगह अड़े मत रहो
अड़े के पीछे खड़े मत रहो
जब तक मंजि़ल नहीं आती आगे बढ़ो।
जो बीत गया उससे सीख लो
उसे छोड़ो और आगे बढ़ो।
याद रखो -
जितना बड़ा काँच उतना ज्यादा ध्यान
यह पहली सीख है ।
दूसरी सीख है -
अगर तुम जाग रहे हो
तो कहीं भी, कुछ भी सीख सकते हो
अगर सीखना चाहो तो।
आँख - कान खुले रखो
जो मिले सभी से सीख लो।
बेटा! जीवन सीखने का दूसरा नाम है
इसमें सीखना सबसे बड़ा काम है।'
फिर बोले-अब उतर जा, मुझे जाना है।
रब तेरा भला करेंगे।'
मैं उस दिन जब ट्रक से उतरा था
जिन्दगी की सही सीढ़ी पर चढ़ा था।
मैं अचम्भे में था -
कितना सीधा आदमी, कितना समझदार आदमी
कितनी गूढ़ बात, कितने सीधे शब्द।
और यह तीसरी बात भी
मैंने इसी घटना से सीखी थी।
जो कुछ भी कहो
सीधे, सरल शब्दों में कहो।
सब सीधे, सरल शब्दों में कहो।
शनिवार, 24 जनवरी 2009
आँगल देश की भाषा
मैं सोचता था-
आँगल भाषा बोली जाती है
दुनिया भर में, हर कोने में
इसका प्रेमी तुमको दुनियाँ में
सभी जगह पर मिल जायेगा
इसको जानोगे तब ही कुछ पाओगे।
नहीं पता था मुझको लेकिन
आँगल देश के पश्चिम में
वेल्स नाम का प्रान्त है कोई
वहाँ पर इसको
नहीं जानता हर कोई
नहीं प्रेम है सबको इससे
नहीं बोलता हर कोई।
मैं अज्ञानी था
नहीं पता था मुझको बिलकुल
चिराग तले पर अन्धकार इतना होगा
जिसे नहीं जानता हर कोई
नहीं पता है सबको इसका
नहीं समझ है सबको इसकी
नहीं जानता हर कोई ।
आँगल भाषा बोली जाती है
दुनिया भर में, हर कोने में
इसका प्रेमी तुमको दुनियाँ में
सभी जगह पर मिल जायेगा
इसको जानोगे तब ही कुछ पाओगे।
नहीं पता था मुझको लेकिन
आँगल देश के पश्चिम में
वेल्स नाम का प्रान्त है कोई
वहाँ पर इसको
नहीं जानता हर कोई
नहीं प्रेम है सबको इससे
नहीं बोलता हर कोई।
मैं अज्ञानी था
नहीं पता था मुझको बिलकुल
चिराग तले पर अन्धकार इतना होगा
जिसे नहीं जानता हर कोई
नहीं पता है सबको इसका
नहीं समझ है सबको इसकी
नहीं जानता हर कोई ।
शनिवार, 17 जनवरी 2009
चित्रा
नन्हीं सी जान बहुत छोटी थी
छोटे-छोटे हाथ-पैर, गोल चेहरा
बड़ी-बड़ी काली आँखें
कभी हाथ पर खड़ा करता
कभी काँधे पर उठाता उसको
छुट्टियों में जब घर जाता
दौड़कर चली आती थी मेरे पास
जब समय मिलता मेरे साथ ही रहती थी
दिनभर बातें या बस चुपचाप मेरे साथ रहना
यही एक काम था उसका
कहानियों की किताबें इकट्ठा करना
ला लाकर मुझे देना
सबसे जरूरी काम था उसका
वही बताती थी
मुझे सारी खबर - पूरे मोहल्ले की
– क्या हुआ?
कौन कहाँ गया? कौन कहाँ से आया?
सब का सब - पूरा ब्योरा।
जब सोचता हूँ
बीते कल के बारे में
सब कुछ एक पल में दौड़ जाता है फिर से
जैसे समय थम गया हो
और साफ उभर आता है
मेरे दिमाग में हर चित्र
उस समय का और ‘चित्रा’ का भी
हाँ चित्रा ही तो नाम है
उस नन्हीं सी जान का
प्यारी सी बहन का।
छोटे-छोटे हाथ-पैर, गोल चेहरा
बड़ी-बड़ी काली आँखें
कभी हाथ पर खड़ा करता
कभी काँधे पर उठाता उसको
छुट्टियों में जब घर जाता
दौड़कर चली आती थी मेरे पास
जब समय मिलता मेरे साथ ही रहती थी
दिनभर बातें या बस चुपचाप मेरे साथ रहना
यही एक काम था उसका
कहानियों की किताबें इकट्ठा करना
ला लाकर मुझे देना
सबसे जरूरी काम था उसका
वही बताती थी
मुझे सारी खबर - पूरे मोहल्ले की
– क्या हुआ?
कौन कहाँ गया? कौन कहाँ से आया?
सब का सब - पूरा ब्योरा।
जब सोचता हूँ
बीते कल के बारे में
सब कुछ एक पल में दौड़ जाता है फिर से
जैसे समय थम गया हो
और साफ उभर आता है
मेरे दिमाग में हर चित्र
उस समय का और ‘चित्रा’ का भी
हाँ चित्रा ही तो नाम है
उस नन्हीं सी जान का
प्यारी सी बहन का।