शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

त्याग

हम बचपन से
बुढ़ापे तक
एक बात सुनते आये हैं
त्याग ।
ये छोड़ दो इसके लिये ।
वो छोड़ दो उसके लिये ।
जीते हैं कुछ, बहुत कुछ छोड़कर।

न हम खुश होते हैं
न वो, जिसके लिये
छोड़ते हैं सब कुछ ।
हमें ललक रहती है - जो छोड़ा।
परेशानी न हो तो त्याग कैसा ?
वो बोझा ढोता है -
हमने त्याग किया, उसके लिये ।
क्यों छोड़ते हैं हम यह कुछ ?

अच्छा हो हम ऊपर उठें
इस अर्थहीन त्याग से ।
छोड़ दें -
द्वेष, बैमनस्य, बुराई और
अपने कुविचार ।

जियें खुद आराम से और
जीने दें सभी को - स्वतंत्र
बिना किसी बोझ तले दबे
स्वतंत्र जीने दें ।

1 टिप्पणी:

manisha kesan ने कहा…

आपकी लिखी हर कविता बहुत सुन्दर होती है ज़िन्दगी के हर पन्ने का एहसास दिलाती है

एक टिप्पणी भेजें