हम बचपन से
बुढ़ापे तक
एक बात सुनते आये हैं
त्याग ।
ये छोड़ दो इसके लिये ।
वो छोड़ दो उसके लिये ।
जीते हैं कुछ, बहुत कुछ छोड़कर।
न हम खुश होते हैं
न वो, जिसके लिये
छोड़ते हैं सब कुछ ।
हमें ललक रहती है - जो छोड़ा।
परेशानी न हो तो त्याग कैसा ?
वो बोझा ढोता है -
हमने त्याग किया, उसके लिये ।
क्यों छोड़ते हैं हम यह कुछ ?
अच्छा हो हम ऊपर उठें
इस अर्थहीन त्याग से ।
छोड़ दें -
द्वेष, बैमनस्य, बुराई और
अपने कुविचार ।
जियें खुद आराम से और
जीने दें सभी को - स्वतंत्र
बिना किसी बोझ तले दबे
स्वतंत्र जीने दें ।
1 टिप्पणी:
आपकी लिखी हर कविता बहुत सुन्दर होती है ज़िन्दगी के हर पन्ने का एहसास दिलाती है
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