शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

अब जो होगा अच्छा होगा

टूटी सड़क
बिना बिजली का खम्बा
गन्दा पानी भरा गड्रडा
बदबूदार दूषित हवा
दूर तक अन्धकार
घोर अन्धकार
ऊपर से घना कोहरा।

हाथ को हाथ नहीं सूझता
हाथ को हाथ नहीं सुहाता
झपट कर छीन लेता है
कूड़ा-कचरा जो कुछ हो।

आदमी दुशमन है आदमी का
चोरी, डकैती, अपहरण, हत्या
सब होता है यहाँ
व्यापार की तरह।
बस व्यापार नहीं होता
ठप हो गया है।

स्कूल कालेज शान खो चुके हैं
बाकी सब मान खो चुके हैं।

मैं हताश नहीं हूँ, निराश नहीं हूँ।
खुश हूँ।
हर बुरी बात पर खुश हूँ
सोचता हूँ - इससे बुरा क्या होगा
अब जो होगा अच्छा होगा''


[1] उन शहरों की दुर्दशा पर जो कभी बहुत सम्पन्न होते थे।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

डौली

छीन लिया क्यों तूने हमसे
क्यों डौली को तूने दूर किया
क्या भूल हुई कुछ हमसे थी
वो भोली गुड़िया छोटी थी
हम सब को कितनी प्यारी थी

लगता है तुझको भी प्यारी थी
उसको तू मिस करता था
दूर नहीं रह पाया उससे
वापस जल्दी बुला लिया

कैसे कुछ बोलूं
क्या अब बोलूं तुझको मैं
अहसान रहा तेरा हम पर
कुछ दिन जो उसको साथ किया
पास में तेरे है अब वो
तू खुश है वो खुश है


हम जैसे भी हो कर लेंगे
यादें उसकी रख लेंगे
धीरज मन में धर लेंगे
 
साथ में तेरे है अब वो
पास में तेरे है अब वो


- डौली के लिये जो अब भगवान के पास है

रविवार, 30 दिसंबर 2012

तुम कुछ करते क्यों नहीं?

गलत कहते हैं
सब गलत कहते हैं
जो लोग कहते हैं
वो लड़की मर गयी
दामिनी या अमानत कहते थे जिसे

ये नादान नहीं जानते
वो बस मरी है
गयी नहीं है कहीं
यहीं है हम सब के बीच
हमारे दिल में है छाप उसकी
दिमाग में है तस्वीर उसकी
रोम-रोम में बस गयी है वो
कानों में आवाज़ गूंजती है उसकी
बार-बार पूछ्ती है वो -

तुम कुछ करते क्यों नहीं
किस बात का डर है तुम्हें
क्या नहीं चाहते तुम
किसी और के साथ न हो
जो मैंने सहा था
फिर कुछ करते क्यों नहीं
किस बात का डर है तुम्हें

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

शर्म करो

बंदर आपस में लड़ते रह गये और वो स्वर्ग चली गयी
कुछ मुंह शर्म से लाल हो गये कुछ पर कालिख पुत गयी
 

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

कृष्ण! कहां हो तुम?


हे कृष्ण !
वो चीत्कार सुनी थी तुमने?
कहां थे तुम?
द्रोपदी अनाथ हो गयी
दुशासन जीत गया
दुर्योधन की आत्मा प्रसन्न हो गयी
रावण बहुत पीछे रहा गया

अब तो आ जाओ,
अपना सुदर्शन चक्र लिये
न्याय करो, आतताई को दंड दो
या भेज दो भीम और अर्जुन को
दुशासन की छाती फाड देंगे
उसकी भुजा उखाड़ फेंकेंगे
कर्ण की जीभ काट देंगे
दुर्योधन की जांघ तोड़ देंगे

भीष्म और द्रोण?
वो तो मौन थे, सदा की तरह 
कुरु सभा?
वो तो नपुंसक थी
मूक दर्शक थी
हमेशा ही ऐसी रही
वैसी ही रहेगी
ये सभी मौत के हकदार हैं
कौन देगा इन्हें?

कृष्ण! कहां हो तुम?
कब आओगे? 

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

जगो, जनता रोती है

कल गांधी के देश में
देश की राजधानी में
एक अनहोनी बात हो गयी
भयानक दुर्घटना हो गयी

कुछ दरिंदों ने एक अबला को धर दबोचा
कैसे कहूं क्या किया, क्या ना किया
वो रावण को पीछे छोड़ गये
दु:शासन से आगे बढ़ गये
मानवता शर्म से मर गयी,
दानवता भी रो पड़ी

जनता ने सुना, सकते में आ गये
सब सन्न रह गये
गर्म खून उबाल खा गया,
सड़क पर उतर गया  
हाकिमों को गुहार की
-    क्यों खून सर्द हुआ है तुम्हारा
जनता रोती है, तुम सोते हो?
क्यों नहीं कुछ करते हो ?

बड़ा दरोगा आगे आया
बोला –
हम हैं अहिंसा के सैनिक,
हम हैं गांधी के चेले
आंखों को हमने बंद किया है
कानों में उँगली हैं डाली
मुंह पर ताला लगा लिया है
बुरा नहीं कुछ सुनते हैं हम
बुरा नहीं हम देखा करते

मैंने माथा ठोका, सर पीट अपना
रोया, फिर बोला मैं –
इतने मति अंध नहीं हो तुम सब
      बस शत-प्रतिशत पथ भ्रष्ट हुये हो
      नहीं महात्मा के चेले तुम
तुम मदारी के बंदर हो
डमरू-डंडे पर छम-छम नाचोगे
चोर उच्चकों को छोड़ोगे
निर्दोषों को लाठी-गोली मारोगे
तुम सब तो केवल बंदर हो
बस बंदर के बंदर हो

हे प्रजातंत्र के रखवालों !
बंदरों पर काबू पा लो
लगाम कसो इन पर पूरी
पिंजड़े में इनको डालो
उस्तरे से काटी है नाक इन्होंने
कल ये गर्दन सब की काटेंगे
दु:शासन पर काबू पा लो
जनता रोती है, सहती है
आंखों से आंसू-आंसू गिरते हैं
पर फिर भी चुप रहती है

सैलाब उमड़ता आयेगा
सम्हलो, जनता की आवाज सुनो
जनता को समझो, पहचानो इनको,
दु:ख दर्द समझलो इनका
जितनी हो पाये, सेवा करलो 
वरना ढह जाओगे

जग जाओ, जग जाओ,
जनता रोती है तुम सोते हो?
अब तो जग जाओ


गुरुवार, 15 नवंबर 2012

बाल साहब

बाल बाल सब बच गये, किया बहुत गुणगान
बाल साहब ने तेरानवे में, जब किया था ऐलान

किया था ऐलान, बहुत दूर तक डंका बाजा
बरसों उसको याद रखेंगे, हों रंक या राजा

शेर सरीखा निडर अकेला, वो सबके दिल पर राज करे
नहीं किसी का डर है उसको, वो लेखनी से ठाँ – करे

ऊधव से पूछा मैंने - क्या है ये सब? माधव कैसा है?
बोला - दिल का भोला है कितना, ये सब उसकी माया है

गुरुवार, 24 मई 2012

यह जगह अजब निराली है

पिछ्ले सप्ताह मैं जयपुर गया था और वहां एक निराली जगह देखी
शब्दों में उसका बयां मुश्किल है. यह एक कविता वहीं लिखी थी
यह शायद आपको बता पाये कि यह जगह कैसी है. आप नैट पर
उसे देखें http://www.treehouseresort.in


यह जगह अजब निराली है

-   पेड़ों पर रहते हैं
          लकड़ी के घर में
          चिड़ियों के जैसे

कमरे में हो लगता है घर में हो
बाहर निकलो जंगल सा लगता है
पर इंतज़ाम सभी यहां रहता है
जंगल में मंगल सा लगता है

चिड़ियों को देखो इतराते पेड़ों पर
अठखेली करतीं हैं कितनी
सुन लो सब बातें उनकी
खुश हैं कितनी गाना गातीं
मस्ती में उड़तीं ऊपर, नीचे आतीं 

तुम भी आओ दौड़ लगाओ
उछलो कूदो गाना गाओ
सांस को अपनी, जोर से खींचो
अच्छी है ये, साफ भी कितनी
रोज की मरा-मारी छोड़ो
आफिस भूलो, घर को त्यागो
एक बार फिर खुशी से जी लो
अपने मनको हलका करलो
अपनी बैट्री चार्ज भी करलो

मनको अपने हलका करलो
मनको अपने हलका करलो

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

झूंठ को अपनायें

झूंठ कितना प्यारा होता है
हसीन दिलकश जांनशीन होता है
छुपा देता है सच को
परदे में रखता है
सामने आने से रोक देता है
जितना चाहें दिखाता है
बाकी अपने में छिपा लेता है

सच ना जाने कैसा हो
कड़वा, भयानक, डरावना, घृड़ित
ना जाने कैसा हो
हम डर जायें?
सहम जायें?
ग़म से मर जायें
न जाने हम क्या कर जायें
अगर सच के सामने आ जायें

मेरी माने सच को रहने दें
झूंठ को अपनायें
ये कलयुग की संजीवनी है
इसे पनपायें बढायें
बस झूंठ को अपनायें

क्यों पूछा तुमने मुझसे

क्यों पूछा तुमने मुझसे –
क्या प्यार मुझे है तुमसे?


उठते – बैठते छवि तुम्हारी
आखों में रहती है मेरे
तुम मेरी सांसों में हो
मेरे प्राणों में बसती हो
नहीं पता क्या तुमको ?
कितना प्यार मुझे है तुमसे?

फिर मुझसे क्यों पूछा तुमने –
क्या प्यार मुझे है तुमसे?

हमने क्या सूरत पाई है

हमने जो सूरत पाई है, न जाने कैसी पाई है
जो भी हमको देखता है, गधा हमको समझता है

दिया तुमने सभी को, ना जाने क्या क्या कुछ
मगर यही मंज़ूर तुमको था, यही किस्मत हमारी है

गिला है न शिकवा कोई, जो मिला कबूल हमको है
बस एक दुआ हमारी है, बाली से बड़ा वरदान हमको हो

मुकाबले में जब कभी कोई भी हमारे सामने हो
आधा नहीं पूरा गधापन हमारा उसी के सिर हो

सन्नाटा है, अब यहां चोरी नहीं होती

कुत्ता भौंकता है
वो सो नहीं पाता
दिन – रात जागता है
पड़ा सोचता है
कुत्ता क्यों भौंकता है ?

शायद कुत्ता नहीं जानता
वो दिन गये जब चोर आते थे
रात को दबे पांव आते थे
कोई आहट न हो, घबराते थे
कुत्ते भौंकें तो भाग जाते थे
लोगों की जाग से डरते थे
पकड़े जाने पर पिटने का खतरा था
चोर मीनार पर लटकायेंगे
जनता में बदनामी होगी, डरते थे
चोरी कभी-कभी करते थे
सबसे डर कर, छुपकर रहते थे

हवा बदल गयी है अब
चोर नहीं आते यहां,
बस डाकू बसते हैं
दिन दहाड़े डाका डालते हैं
थाने में डाके की रपट नहीं होती
डाकू को कभी सज़ा नहीं होती

डाकू किसी से नहीं डरते
कुत्तों के भौंकने से खुश होते हैं
अच्छा है लोग जाग जायेंगे
उनका लोहा मानेंगे, बड़कर स्वागत करेंगे
आने का नज़राना, जाने का शुक्रिया देंगे
यकीन है उन्हें, पकड़ में नहीं आयेंगे
आये भी तो छूट जायेंगे
अपने बच्चों को सिखाते हैं
जो मन आये कर लो
जब चाहो जितना लूट लो

लोग चुप हैं, सहमे रहते हैं
सन्नाटा है हर ओर
अब यहां चोरी नहीं होती
बस डाके पड़ते हैं
कोई चोर नहीं है यहां
कभी चोरी नहीं होती

दमकता दिया

रात का समय था
चारों ओर अंधकार था
आसमान पर बदली थी,
रोशनी का सुराग न था

गंतव्य पर हमारा ध्यान था
हमें समय का ख्याल था
वो हाथ से फिसल रहा था
इसका पूरा अहसास था

दिमाग छुट्टी पर था
हमारा मन बेकाबू था
हम रास्ता जानते थे
मगर राह खो बैठे थे

तभी कहीं दूर कुछ दिखा
वो हमसे बहुत दूर था
ठीक से नहीं दिखा था
हमें बाद में पता चला
टिमटिमाता दिया था

उसमें तेल कम था
हवा तेज चल रही थी
उसकी लौ कांप रही थी
मगर हौसला बुलंद था

उसे हालात का ज्ञान था
छोटे होने का अहसास था
वो पूरी रात न चल पायेगा
न जाने कब बुझ जायेगा
हमेशा के लिये सो जायेगा
वो यह सब जानता था


वो खुद को खो रहा था
हमें रास्ता दिखा रहा था
बराबर लगातार जल रहा था

हमारे काफिले में वो कौन थे
किस तरह के, कहां के लोग थे
न जाने किस कुंठा से ग्रस्त थे
दिये में कमी खोज रहे थे

उसकी रोशनी में कमी थी
उसमें घी नहीं, तेल जलता था
वो मट्टी का बना था
सभी को बता रहे थे

सूरज से तुलना कर रहे थे
उसे छोटा और तुच्छ बता रहे थे
कहां सूरज का दमकता प्रकाश
कहां वो पिद्दी सा दिया
वो उसका काम क्यों करता है?
बार-बार यही पूछते थे

मैं ये सब देखता था
अचम्भे में सोचता था

कैसे लोग हैं अजीब लोग हैं?
दिखती राह नहीं चलते
सही राह नहीं चलते
दिये से कुछ सीखते नहीं हैं
वो इनके लिये जलता है
ये बेकार उससे जलते हैं
अजीब लोग हैं, ये कैसे लोग हैं?

शनिवार, 19 मार्च 2011

पत्थर के पत्थर रह जाओगे

नन्हीं बच्ची
है कितनी अच्छी
जो बोल पडी थी मुझसे आज
- क्यों भेजी तुमने बात पुरानी
आज नहीं क्यों लिखते हो
मुझको तो अब लगता है
तुम काम नहीं कुछ करते हो

मैं सोच मैं डूबा बैठा हूं
हम सब क्या करते रहते हैं?

जो पहले देखा दोहराया
जो रट रख्खा था उगला दिया
कल तक हम जो करते थे
बस आज वही फिर करते हैं
दिन महीने साल न जाने कितने
बेकार में यूंही निकल गये
हम जैसे थे वैसे ही बने रहे
नया नहीं कुछ सीखा हमने
नया नहीं कुछ बोला हमने

वो देखो वो पत्थर
वो वर्षों से यहां पडा
जाडा गर्मी सरदी बारिश
सदियां की सदियां निकल गयीं
बदल नहीं कुछ इसमें पाया

क्या अंतर है हम दोनों में?
क्या इसको जीना कहते हैं?

एक बात की गांठ करो तुम
रोज नया कोई काम करो तुम
नया नहीं कुछ कर पाओगे
पत्थर के पत्थर रह जाओगे

झमेले के बंदर

नन्हीं कली मुझको मिली
हँस के कहा – तुमने सुना
मैंने कहा – नहीं, कुछ भी नहीं

नन्हीं कली मुझको मिली
हँस के कहा – तुमने देखा
मैंने कहा – नहीं, कुछ भी नहीं

नन्हीं कली मुझको मिली
हँस के कहा – तुमने कुछ कहा
मैंने कहा – नहीं, कुछ भी नहीं

उसने कहा – नहीं नहीं क्यों नहीं?
देखा नहीं, सुना नहीं, कहा नहीं
क्यों, क्यों, क्यों, क्यों नहीं?

मुझको पूरा भरोसा है
गांधी के तुम चेले नहीं
अब तो ऐसा लगाता है
तुम भी झमेले के अंदर हो
तुम तो बिलकुल बंदर हो

अपना चशमा बदल के देखो

छोटी बच्ची चहक उठी
चटक मटक कर बोली मुझसे
अॅं कल मेरे! क्या करते हो
कमरा तुमने बंद किया है
कुर्सी पर अकडे बैठे हो
दूर बहुत हो सब लोगों से
कोई बात नहीं तुमसे करता है
मिलने में भी डर लगता है
इस तरह अकेले बैठे ठाले
क्या मिलता है तुमको बोलो

मैं चुप, बिलकुल चुप था
सोच रहा था क्या बोलूं
ये बात पते की बोल रही है
कड़वा सच भी घोल रही है
इतने सारे लोग यहां हैं
भूख प्यास की फिकर नहीं है
घर जाने की किसको चिंता
चौबीस घंटे लगे हुए हैं

मुस्काई गुडिया
फिर बोली मुझसे –
कमरा छोड कर अंकल निकलो
बाहर जा कर सबको देखो
मिलकर उनके साथ में खेलो
कंधे से कंधा टकराओ
जोश में उनको लेकर आओ
हंसकर उनसे बात करो तुम
गलती सब की माफ करो तुम
गुस्सा बिलकुल करो नहीं तुम
हिल मिल कर सब साथ रहेंगे
मिल जुल कर सब काम करेंगे
झट पट - झट पट खत्म करेंगे

काम सभी फिर और करेंगे
प्यार भी तुमको और करेंगे
काम समय पर खत्म भी होगा
सबके दिल में खुशी भी होगी
नाम भले ही भूल वो जायें
काम हमेशा याद रखेंगे

मैं असमंज में सोच रहा था
सही गलत को तोल रहा था

गुड़िया ने दुविधा समझी
प्यार से मुझसे फिर बोली -
अंकल मेरे मान भी जाओ
कमरे से बाहर तो आओ
हंस कर सबको गले लगओ
चशमा अपना साफ करो तुम
नयी नजर से देखो अब तुम

मैंने उसकी बात को माना
कमरे से बहर मैं आया
चशमा अपना दूर किया
नयी नजर से देखा सब कुछ
हिला दिया फिर अंजर पंजर
बदला गया तब सारा मंजर
सबने मिल कर काम किया
खुशी – खुशी हर रोज किया
जल्दी जल्दी खत्म किया
नैया अपनी पार लगी तब
मंजिल को पाया सबने
उनको खूब सराहा सबने

अब जाने की बारी आयी
बार-बार मैं सोच रहा हूं -
कैसे दूं मैं तुम्हें विदाई?
क्या बोलूं?
क्या बांधूं के रख दूं साथ तुम्हारे?

गुड़िया फिर से नजर में आई
एक बात फिर जहन में आई
जो कुछ सीखा मैंने तुमसे
मैं वापस तुमको भेंट करूंगा

यह तोहफा मेरा साथ में रखना
कान खोल कर ध्यान से सुनना
तुम भी जब फंस जाओ कहीं पर
मेरी बातें ध्यान में रखना
काम सभी के साथ में करना
चशमा अपना बदल के रखना
नयी नजर से देखा करना
बस अपना चशमा बदल के रखना
चशमा अपना बदल के रखना

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

अपने आप से नाराज़ हूं मैं

नाराज़ हूं मैं
बहुत नाराज़ हूं मैं
तुमसे नहीं, किसी और से नहीं
बस अपने आप से नाराज़ हूं मैं

क्यों नाराज़ हूं मैं?
जानता नहीं हूं मैं
मगर बहुत नाराज़ हूं मैं

मेरा कहा किसी ने सुना नहीं?
मेरा कहा किसी ने किया नहीं?
नहीं नहीं ऐसा नहीं है
मैंने कुछ भी कहा ही नहीं है
फिर भी बहुत नाराज़ हूं मैं

कुछ चाहा मिला नहीं?
नहीं मैंने कुछ चाहा ही नहीं
जो मिला, जितना मिला
बस उसी में खुश
पर फिर भी न जाने क्यों
बहुत नाराज़ हूं मैं

कहां आ गया हूं मैं
क्यों आ गया हू मैं
नहीं जानता –
रास्ता कहां है, जाना किधर है?
कहां जाउंगा? नहीं जनता

मगर जानता हूं चला जाउंगा
इस अंधकार से निकल
अपनी मंजिल तक पहुंच जाउंगा

पर न जाने क्यूं
बहुत नाराज़ हूं मैं
बस अपने आप से नाराज़ हूं मैं

सरफिरे

सर फिर गया था हमारा
गलती की थी हमने
बहुत बड़ी गलती
जान बूझ कर की थी
निकल पड़े थे नंगे हाथ
बढ़ती आग बुझाने

अनजान नहीं थे हम
लड़ाई आर – पार की थी
जानते थे एक ही बचेगा
बाजी जीत लेंगे या तबाह होंगे
शायद जीत कर भी तबाह होंगे
फिर भी कूद पड़े थे

अनजान नहीं थे हम
किसी तगमे का लालच नहीं था
किसी खिताब की चाह नहीं थी
कुछ कर दिखाना नहीं चाहते थे
बस फिजूल का शौक था

हम पूरे होश में थे
पर न जाने क्यों
अजब, शराबी सा नशा था
सबकी सलाह ठुकरादी
किसी की एक न चली
हम न माने
किसी तरह न माने
बस कूद पड़े

जानते न थे
यह अजब खेल है
हारेंगे तो सब मिलकर मारेंगे
जीतेंगे तो घेर कर मारेंगे
बस मौत लिखी है
सबके नाम लिखी है

कोई हट के मरता है
कोई सट के मरता है
कोई खा कर मरता है
कोई भूखा मरता है
बस मरते हैं सभी
जरूर मरते हैं सभी

अजीब खेल है
यहां हारने वाले को
चील कौवे भी नहीं छोड़ते
जीतने वाले की बलि देते हैं
न जाने क्यों

फिर भी बहुत सरफिरे हैं
कूद जाते हैं
न जाने क्यों?

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

शायद तुम नाराज़ हो मुझसे

सुबह सवेरे उठता हूं
नींद को झझकोड़ कर हटाता
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

छट-पट तैयार
आफिस की भागम-भाग
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

बॉस की सुनी
मातहद को सुनाई
दिनभर कोल्हू का बैल बना
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

शाम, दिन छिपे वापस
थका-मांदा घर लौटता हूं
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

फिर रात
वही घर, वही बिस्तर
करवट बदलता सोता हूं
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

उम्र कट जायेगी यूं ही
घर-आफिस के बीच की दौड़
तुम्हारे ख्याल में गुज़र जायेगी

फिर भी न जाने क्यूं
मुझे लगता है –
तुम शायद नाराज़ हो मुझसे

आस-पास की चोरी
लूट-खसोट, मार-पीट
भष्टचार - चोर बाज़ारी
मंहगाई आत्याचार
मुझे क्यों नहीं दिखता ?
इन्हें हटाने के लिये मैं कुछ नहीं करता !

न जाने क्या सोचता हूं?
बस तुम्हारे ख्याल मैं रहता हूं
कभी-कभी सोचता हूं -
शायद तुम नाराज़ हो मुझसे

मैं क्यों कुछ नहीं करता
क्यों ख्याल में खोया रहता हूं ?
क्यों सपनों मैं सोया रहता हूं ?
मैं नहीं जानता

पर अक्सर सोचता हूं -
तुम बहुत नाराज़ हो मुझसे