मंगलवार, 27 जून 2017

नदिया का पानी


कल-कल कल-कल
कल-कल कल-कल
बहता जाता पानी
नदिया का पानी
कल-कल कल-कल करता
बहता है पर्वत से
घाटी से बहता है
कल-कल कल-कल करता
अविरत बहता जाता है पानी

राह रोक कर खड़े हुये
पर्वत कितने ऊंच-ऊंचे
कहते हैं – हम हैं बलशाली
ऊंचे कितने, बरसों से प्रहरी हैं
रोक नहीं पाते वो उसको
वह जाता है रोज़ निरंतर
काट उन्हें, वो बहता जाता है
कहता जाता है
कल-कल कल-कल

पर्वत के पत्थर
आते हैं रस्ते में उसके
कहते हैं उसको
रुकजा हम हैं रस्ते में तेरे
राह रोक कर खड़े हुये 
तू थमजा, साथ हमारे रुकजा
पड़े वहीं रह जाते हैं पत्थर
कभी काटता वो उनको
कभी छांटता वो उनको
जाता है अपने रस्ते

ये इन्तजार में रहते उसके
सोचा करते -
वो कल रुक जायेगा
पर वह बहता जाता है
कहता जाता है
कल-कल कल-कल

तुम जब भी देखो
कोई रोड़ा, पत्थर कोई आये
राह तुम्हारी रोक खड़ा हो
बोले – रुक जाओ, थम जाओ
तुम जाना रस्ते पर अपने
हंस कर तुम उससे कहना
कल-कल कल-कल

गुरुवार, 1 जून 2017

क्यों सोचते हैं हम?

कल एक पुराने दोस्त से
मेरी मुलाकत हो गयी
मुझे देख चौंक उठे
बोले – कैसे हो?
तबीयत ठीक है?

मैंने कहा – हां ठीक है
मज़े में हूं बस सोच रहा था कि ...
उन्होंने मुझे बीच में टोक दिया
आगे बोलने से रोक दिया
कहा – क्यों सोचते हो?
आखिर क्या बात है ?
तुम सोचते क्यों हो?

तुमने देखा है किसी पंछी को
हवा से बातें करते झूमते
मस्ती में अपनी धुन में गाते
किसी तितली देखा है उड़ते
किसी भंवरे को मंडराते देखा है
कोयल की कूक सुनी है

कभी देखा है किसी कुत्ते को
गाड़ी के पीछे दौड़ते
बिल्ली को चूहे से खेलते
खरगोश को छलांग लगाते
हिरण को भागते देखा है
बैल को काम करते
रहट से पानी खींचते देखा है
शेर को शिकार करते
मछ्ली को तैरते देखा है
कभी देखा है तुमने
किसी बच्चे को मस्ती करते

ये सब सोचते नहीं हैं
ज़िन्दगी के मज़े लेते हैं
ज़िन्दगी मज़े से जीते है
तुम नाहक परेशान होते हो
व्यर्थ सोचते हो
जिन्दगी का ढंग बदल दो
जिन्दगी खुल कर जी लो
सोचना बंद कर दो

मझे समझ आया
दुनियां में कितने जीव हैं
खुल कर जीते हैं
सोचते नहीं हैं
ये भी कितना सीधा आदमी
कितना अच्छा आदमी
सोचता नहीं है
मज़े से जीता है!

मैं फिर सोच में पड़ गया
ये सब मजे से जीते हैं
हम बेकार ही सोचते हैं?
क्यों सोचते हैं हम?

क्यों पूछा तुमने मुझसे?

क्यों पूछा तुमने मुझसे –
क्या प्यार मुझे है तुमसे?

उठते – बैठते छवि तुम्हारी
आँखों में रहती है मेरे
तुम मेरी सांसों में हो
मेरे प्राणों में बसती हो
नहीं पता क्या तुमको ?
कितना प्यार मुझे है तुमसे?

फिर मुझसे क्यों पूछा तुमने –
क्या प्यार मुझे है तुमसे?

कौन हो तुम?

कौन हो तुम
क्या संबन्ध है तुमसे?
किस जन्म का नाता है?
मैं नहीं जानता

बना रहता है चित्र तुम्हारा
मेरे दिल, दिमाग, मन पर
हर समय, हर पल

जब कुछ करता हूं
सोचता हूं –
तुम क्या सोचोगे?
क्या कहोगे?
क्या करोगे?
तुम खुश होगे या नाराज होगे?
बस यही सब सोचता हूं
जब भी कुछ करता हूं

तुम्हारा खयाल है
यही विचार हैं
कि रोक लेते हैं मुझे
गलत राह से बचाते हैं
सही राह पर चलाते हैं मुझे
कौन हो तुम?

कैसे बतलाऊं तुमको

कैसे बतलाऊं तुमको
कैसा हूं मैं?
रहा साथ में इतने दिन से
नहीं पता तुमको फिर भी -
कैसा हूं मैं?
तुम्हीं कहो कैसे बतलाऊं तुमको
कैसा हूं मैं?

तुमसे ही तो सीखा है मैंने -
सावन में झूले पर झूलो।
जाड़ों में भरी दोपहर
सूरज के आगे बैठो टांग पसारे।
बारिश में भीगो पानी में।
गर्मी में घूमो सुबह-शाम सागर तट पर।
बर्फ पड़े तो पर्वत पर जाओ
खेलो उसमें ढेले-ढेलों से।

तुमसे ही तो सीखा है -
डोलूं कैसे बगिया में
हाथों को हाथों में लेकर
झांकूं कैसे आंखों में आंखें डाले
देखूं कैसे उनमें तीनों लोकों को।

तुमसे ही तो सीखा है -
खेलूं कैसे बच्चों के संग
कैसे देखूं उनमें मूरत जगदम्बा की
कैसे रूप निहारूं उनमें भोले बाबा का।

तुमसे ही तो सीखा है मैंने -
मंदिर में जाओ शीश नवाओ
बस मंदिर में ही शीश नवाओ
बाकी सब के आगे झुकना मत
तनकर जीओ शीश उठाए।

तुमसे ही तो सीखा है इतना सब कुछ
क्या नहीं पता तुमको फिर भी
कैसा हूं मैं?
तम्हीं कहो - कैसे बतलाऊं तुमको
कैसा हूं मैं।

उम्र का तक़ाज़ा

देखता हूं जब कभी मैं आइने में अक्स अपना।
दौड़ जाता है ज़हन में फिर मेरा गुज़रा ज़माना।।

बात ये उस वक्त की है जो यहां से गुजर गया।
मैं तो अब भी हूं वही बदल गया है पर ज़माना ।

शाम-रात, बारिश-पानी, जाड़ा-गर्मी कुछ भी नहीं थे।
था दौड़ता हर वक्त रहता, मैं गुनगुनाता नया तराना।

तब चाह थी दिल में लगी और जुनून तन में था जगा।
जोश था भरपूर मुझमें, हर रोज़ बनता था नया फसाना।।

जुनून अब भी है वही और चाह भी दिल में वही है।
जोश भी है दिल में मेरे, अक्सर गुनगुनाता हूँ तराना

पर अब हड्डियों में ज़ोर कम है पेशियों में दम नहीं है।
आईने में अक्स है और ज़हन में गुज़रा ज़माना।

अतीत, वर्तमान और भविष्य

समझ नहीं आता
किसे प्यार करूँ?

अपने अतीत को -
जो बीत गया
अब कभी वापस नहीं अयेगा?

अपने भविष्य को
जो आया ही नहीं
न मालूम कैसा होगा उसका स्वरूप?
फिर कैसे जानूं उसको?
कैसे ढालूँ कल्पना की परिधि में
कैसे ज्ञान करूँ, कैसे मान करूँ उसका?

इस त्रिकोण का तीसरा कोण है
अपना वर्तमान।
यह क्षणिक है , रुकता ही नहीं
बहता जाता है एक नदी की तरह।
यह तो अपने आप में एक पहेली है।

अतीत, भविष्य और वर्तमान
तीनों ही एक समस्या हैं
पर मेरी नहीं।
मेरी समस्या है -
इन तीनों में से एक को चुनना।

मैं वर्तमान को चुनता हूँ।
उसे प्यार करता हूँ
पाता हूँ अपने आप को
अतीत और भविष्य से मुक्त
न बीते हुए की खुशी , न शोक उसका
न आने वाले का डर।

मैं जीता हूँ - वर्तमान में
बस इस क्षण में।
प्यार करता हूँ इससे
जीता हूँ इस क्षण में।

बुधवार, 17 मई 2017

न कोई आशा, न प्रतीक्षा

समुद्र के बीच
खड़ा ढूँढता था
जल को, प्यासा
एकदम अकेला।

चकोर सी
व्यथा नहीं थी उसकी।
चकोर अच्छा है।
जिसे प्रतीक्षा है,
स्वाति नक्षत्र के जल की।
विश्वास है, भरोसा है,

एक दिन अवश्य आयेगी।
तृप्त कर उसे
प्यास बुझा देगी।
शक्ति, हिम्मत और सहारा देगी
पुनः अगले साल तक प्रतीक्षा की।

वह बेचारा
बस खड़ा था
समुद्र के बीच
प्यासा, एकदम अकेला
न किसी की प्रतीक्षा
न कोई आशा।

कलियुग की गान्धारी

कलियुग में 
गान्धारी को महाभारत का
आँखों देखा हाल
सुनाने का कार्य
संजय और उसके साथियों ने लिया।

परन्तु यह कार्य
उन्होंने सच्चाई और कुशलता से नहीं किया,
या फिर 
गॉन्धारी ने 
अपने आँखों की पट्टी से
अपने कानों को भी बन्द कर लिया था।

वह अपने पुत्र को,
लौह पुरुष बनाने के लिये
नग्न हो , अपने सम्मुख आने को न कह सकी।

वह मिट्टी का पुतला
बेचारा बाढ़ में  बह गया।

शनिवार, 13 मई 2017

लाल किला

लाल किला, लाल है क्यूँ
जानते हो तुम?

जब बना था
लाखों ने खून पसीना एक किया था
इसकी नींव को भरा था
बन गया यह
एक अजूबा अपनी तरह का
धरती पर स्वर्ग यही था

इसकी अपनी शान थी
बादशाहत की आन थी
आन पर मर मिटे कितने शहीद
लहू बहा कितनों का
कोई हिसाब नहीं

फिर लुट गयी आन
शान गुम हो गयी
नाहक गरीबों की जान गयी
नादिर ने मारा सभी को
जो मिला इसके सामने
जब तक कोई जिन्दा बचा।
फिर लाश को पीटा
अब्दाली ने कई बार लूटा
खून से रंग दिया पूरा।

फिर आये लाल मुँहे
अपनी करतूतों पर
शहजादों को मारा
प्यास नहीं बुझी
फिर खून की नदी बही।

फिर आज़ादी की लड़ाई
बन्दूक तोप तलवारों के खिलाफ
बिना बन्दूक तोप तलवारों की लड़ाई।
बहुत शर्मनाक हरकतें हुईं
पर निहत्थों के आगे एक न चली
सत्ता की कमर चरमराई और टूट गयी
देश आज़ाद हो गया।

फिर देखी इसने लड़ाई
सरहद पर हुई कई बार की लड़ाई
इसकी शान को आँच न आये
इसकी आन बनी रहे
यही सोचा होगा उन सभी ने
जो वीरगति के काम आये।

इसने देखा है सब
खून के हर कतरे का हिसाब रखा है
लोगों को याद रहे
सब कुछ याद रहे
कोई भूलने न पाये
इसलिये अपना रंग लाल रखा है।

यह नहीं होगी, तो कल भोर नहीं होगी


देखो तुम ये छोटी बच्ची, है कितनी अच्छी
प्यारी-प्यारी बातें इसकी, हैं कितनी अच्छी ।
प्यार करूं कितना भी, कम ही कम लगता है
लाड़ लड़ाऊं जितना, पर मन नहीं भरता है ।

मैं सोचता रहता हूं काम इसे कितने हैं
आने वाला कल इस पर ही निर्भर है ।
नई-नई पीढ़ी को दुनिया में ये ही लाएगी
हम इसको जो देंगे दस गुना उन्हें यह देगी।

सीख उन्हें ये देगी, ध्यान रखेगी, पालेगी-पोसेगी
तकलीफ अगर कुछ होगी, तो रात-रात जागेगी ।
इसके दम से ही, हम दम भरते हैं दुनिया में
इसके दम से ही, तुम दम भरते हो दुनिया में ।

पर दुर्भाग्य हमारा देखो, अकल के कुछ अंधे हैं
दुनिया में आने से पहले ही, जो मार इसे देते हैं।
वो भी क्या कम हैं, जो तंग इसे करते हैं
दहेज की वेदी पर, जो बलि इसकी देते हैं ।

अगर यह नहीं होगी, तो कल भोर नहीं होगी
यह संसार नहीं होगा, यह सृष्टि नहीं होगी ।
हम भी नहीं होंगे, तुम भी नहीं होगे
विश्वास मुझे है तब वो भी नहीं होगा ।

जिसके दम से हम दम लेते हैं दुनिया में ।
जिसके दम से सब दम लेते हैं दुनिया में ।
तब वो भी नहीं होगा-तब वो भी नहीं होगा।

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

माँ, चली गयी आज



माँ, चली गयी आज
बीमार थी कई दिन से
अस्पताल में जी घबराता था उसका
मगर घर पर बहुत ख़ुश रहती थी

क्या करते इन्फैक्शन था बीमार थी
बिना अस्पताल राहत न मिलती
ले जाना पड़ा, भर्ती कराना पड़ा
कभी कमरे में होती कभी आईसीयू
बस इसमें सिमट कर रह गयी थी

फिर ऊब गया मन नाराज़ हो गयी
इलाज पूरा हुआ, अब ध्यान रखते हैं
सुबह शाम दवा से मेरा पेट भरते हैं

रूठ जाती, बिलकुल बच्चों सी रूठ जाती
दाँत भींच लेती थी पानी भी नहीं पीती
बहुत बहलाया, डाक्टर ने भी समझाया
कभी मानती, कभी ज़िद पर डटी रहती

दिमाग़ एकदम ठीक, सब पता था उसे
बस शरीर जबाब दे रहा था उसका
एक दिन डाक्टर को रोक लिया उसने
उसने पूछ, कि बेचारा बस चुप रह गया

-इन्फैक्शन तो ठीक हो गया है अब
रह गया है तो बस केवल एक बुढ़ापा
बेइलाज है, क्या इलाज है उसका?
यहाँ देखभाल है, घर पर भी हो जायेगी
बच्चों के साथ रहूँगी, दिल बहल जाएगा
जब बुलाओगे चैक-अप यहाँ कराऊंगी

छुट्टी दें, यहाँ नहीं रहना, घर जाना है मुझे
यहाँ से नहीं, घर से ही जाना है मुझे

फिर घर आयी और घर से चली गयी
जैसा वो चाहती थी, वैसे ही कर गयी

माँ बीमार थी कई दिन से
आज चली गयी
हमेशा-हमेशा के लिये चली गयी

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

चिड़िया को मत बन्द करो तुम

आओ बच्चों तम्हें सुनाऊँ।
एक कहानी बहुत पुरानी ।।
नन्ही सी एक चिड़िया रानी।
मेरे  घर  में  आती  थी ।।

कूक-कूक कर मुझे बुलाती।
किलकारी से घर भर जाती ।।
मीठे  सुर  में  गाना  गाती ।
हम सब का वो दिल बहलाती ।।

जब भी उसका मन करता था।
बहुत दूर वह उड़ जाती थी।।
भूख लगी तो घर को आती ।
वरना वो बाहर रह जाती ।।

एक दिवस को नटखट चुन्नू।
जाल बिछा कर बैठ गया।।
चिड़िया को उसने पकड़ लिया।
पिंजड़े में फिर जकड़ दिया।।

चिड़िया अब मुश्किल में थी।
चुन्नू  के  कब्जे  में  थी ।।
गाना उसने बन्द किया।
अनशन पानी ठान लिया ।।

चुन्नू ने उसको ललचाया।
लड्डू पेड़े  खाने को लाया ।।
चिड़िया बिलकुल बदल गयी थी ।
सूरत  उसकी  उतर  गयी  थी ।।

चिड़िया थी मन की रानी।
आँखों में था उसके पानी।।
मैंने फिर पिंजड़ा खोला।
चिड़िया को बाहर छोड़ा।।

फुर से चिड़िया निकल गयी।
दूर  डाल  पर  बैठ  गयी।।
पहले  उड़  ऊपर को  जाती।
फिर गोता मार नीचे को आती।।

मीठे सुर में गाना गाती।
मकारीना नाच दिखाती।।
कितनी खुश चिड़िया रहती।
जो मन  आया  वो  करती।।

एक बात  की  सीख करो तुम।
चिडि़या को मत बन्द करो तुम।।
जितनी  खुश  चिड़िया होगी।
उतने  खुश  तुम  भी  होगे।।

चिड़िया को मत बन्द करो तुम।
चिड़िया को मत बन्द करो तुम।

दिमाग घूम जाता है मेरा

दिमाग घूम जाता है मेरा
जब कभी तुम पास होते हो मेरे

मैं भूल जाता हूं
कौन हूं मैं
क्या करता हूं
क्यों करता हूं

खो जाता हूं
नयी दुनियां में
पूर्णत: तनाव मुक्त
न कोई चिंता न परेशानी
न कोई खतरा

फिर जुट जाता हूं
दूनी लगन चाव और मेहनत से
अपने काम में पूरी तरह मशकूल

भूल जाता हूं –
तुम मेरे पास हो

बस दिमाग घूम जाता है मेरा
जब कभी तुम पास होते हो मेरे

बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

प्रेम द्विवेदी सच बोला था!

प्रेम द्विवेदी बोला था
- सत्य वचन हो, कर्तव्यनिष्ठ हो
परोपकार में ध्यान लगाओ
कथनी-करनी एक बना लो
जो करना हो वो बोलो
जो बोलो वो कर डालो”

मंत्र हमेशा साथ रहा यह
अपनाया इसको, जीवन में ढ़ाला।
कभी-कभी मैं थक जाता हूँ
निराश अकेला सोचा करता हूँ
- वो सच बोला था ?”

देख रहा हूँ वो भेड़िये
जो छुपे भेड़ की खाल ओढ़कर
यहाँ-वहाँ पर खड़े हुये हैं।
वो देखो वे श्वान वहाँ पर
तैयार ताक में खड़ा हुआ है
झपट पकड़ लेगा वो बिल्ली
जो बैठी है घात लगाकर
उस चूहे को ताक रही है।

वो मदमस्त चला आता है हाथी
चूर नशे में तनकर कितना
कुचल-मसलकर रख देगा
कहीं कोई जो रस्ता रोकेगा।

वो देखो, वो गिद्ध वहाँ बैठे कितने हैं
मरे गिरों को भी नोचेंगे।
वो दूर सिंह चला आता है निर्भय
जब आता है उसके मन में
मार गिरा देता है, खा जाता है
नहीं किसी का डर है उसको

बेताज बादशाह बन बैठा है
कौन उसे गद्दी से खींचेगा?
कौन उसे रोके-टोकेगा?
कौन नकेल लगा पायेगा?

वो घोड़ा दौड़ रहा हिरनों के पीछे
ले मालिक को ऊपर अपने
खुद मांस-मछली कभी नहीं ये खाता
पर मालिक से है उनको मरवाता

मालिक उसका है अजब निराला
खेल-खेल में मारेगा
चमड़ी में भूसा भरवा देगा।
नहीं किसी का डर है उसको
नहीं किसी से प्रेम है उसको

मैं जब देखा करता हूँ यह सब
सोचा करता हूँ -

प्रेम द्विवेदी सच बोला था”

तुमको क्या लगता है -

वो सच बोला था ?”

बुधवार, 15 जुलाई 2015

फुटकर द्वैतिकाऐं

देखा जो  उनको , घर  पर  रकीब  के।
नज़र से हमको अपनी , ऐतबार उठ गया।।

कहें किससे, वो गिले शिकवे शिकायत सभी।
न तुम करीब हो, न मैं खुद अपने ही पास हूँ।।

मिन्नतें  कीं   हैं  इस कदर ।
रब दस बार मिल गया होता।।

कैसे कहदूँ वो बात कभी जो तुमसे कहनी थी।
तुम वो नहीं रहे और अब, मैं भी बदल गया हूँ।।

सच नहीं है कि मुहब्बत न रही मुझे, या मैं बदल गया हूँ।
दिल में अपने ही देखिये जो पहले था, अब नहीं  है वो।।

हम न कह पाये तो क्या, तुमने देखा था हमेशा।
फिर क्यों रह गया दफन, इश्क सीने में हमारे।।

कोशिशें तमाम कीं, ता उम्र लगा रहा।
न बुझ सकी, जो लगी सीने में थी हमारे।

मैंने पूछा भगवन से, बोलो! - कैसे तुम्हारी भक्ति हो।
बोले धूप दीप न लकड़ी-चन्दन मन के अन्दर बाती हो।।

सोचा था कहाँ से लाकर देगा, इतना जो माँग लिया था मैंने।
वो खुदा है, देकर तुम्हें, उसने बक्श दी हर एक दौलत मुझको।।

सोचा था कहाँ से लाकर देगा, इतना जो माँग लिया था मैंने।
वो खुदा है, देकर तुम्हें, मुझको बक्शी हर एक दौलत उसने।।

रब जाने क्या रुख लेगी महफिल, क्या हश्र बनेगा मसले का।
इस महफिल के सभी जानवर, अपनी ही बोली में बोल रहे हैं।।

तरक्की दर तरक्की , इस मकाँ पर आ गया है आदमी ।
अदमी  को  आदमी , अब  लगता नहीं  है  आदमी।।

आदमी और  इन्सान में, अब  फर्क  है  इतना।
इन्सान को, पहचानता बिलकुल नहीं है आदमी।।

माना जी भर गया आपका, तबियत बहल गयी।
अब इस खाकसार को, यूँ बे-गैरत न कीजिये।।

मजनू सी दीवानगी नहीं, न रोमियो सी कुर्बानगी, न है फरहाद सा हौसला।
शाहजहाँ सी दौलत भी नहीं, यकीनन अपना है  अन्दाज़-ए-इश्क और।।

तुमसा ही एक ज़र्रा हूँ, मेरा नाम न पूछे कोई।
मेरे काम को देखो, मेरे काम से जानो मुझको।।

परवाने खाक हो गये, किसी ने खबर भी न ली।
शम्मा का जलना, मगर हर एक शक्स ने देखा।।

हजारों को हजम करके, शम्मा  रोशन  चिराग है।
कसूर क्या था बिचारों का, जो नाहक खाक हो गये।।

सार है सब ग्रंथका, सबसे बड़ा यह सत्य है।
कर भला जो और का, तेरा भला हो जायेगा।।

दिमाग से सोचो, फिर खून पसीने से सींचो उसको।
खुद अपने आप तो, हाथों पर लकीर नहीं बनती।।

मैं मझधार में तूफाँ से उलझा, तू हँसता है साहिल पे खड़ा।
एक बार तो आकर देखा यहाँ, यह काम नहीं है बचकाना।।

हर मुँह में रोटी होगी, सबके हाथों को काम मिलेगा।
ये नक्शा है मंजिल का मेरी, आँखों में आया ख्वाब नहीं है।

कस्तूरी हिरन ढूँढते हैं, चारों ओर बारबार लगातार।
जानते नहीं कि उन्हीं के अन्दर है, जिसे ढूँढते हैं वो।।

घर तमाम रोशन, कर दिया चिराग ने।
फिर इसे आफताब, क्यों न कहें हम।।

कैसे कहूँ तुमको, क्या सोचोगे?
हाँ कहो पहले, तो बताऊँ तुमको।।

शनिवार, 7 मार्च 2015

क्यों हूँ?


सत्य की पहुँच से दूर है, जहाँ हूँ मैं।
जहाँ हूँ मैं वहाँ कोई आवाज़ नहीं आती

नहीं आती है कोई चीख किसी की
किसी की सुनता नहीं मैं अकेला हूँ

मैं अकेला हूँ, मेरे साथ नहीं है कोई
है कोई नहीं यहाँ, मेरी आत्मा भी नहीं है

नहीं है मेरा ज़मीर, मर गया है
गया है सब कुछ कहाँ? मुझे नहीं पता

नहीं पता - कौन हूँ मैं, क्यों हूँ?
क्यों हूँ? जहाँ परछाईं भी नहीं सत्य की।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

लोग मिलते हैं गुज़र जाते हैं
हम उनकी यादों में सिहर जाते हैं
इसलिए बंद कर दी यादों की क़िताब
फिर भी कुछ वरक़ बिखर जाते हैं
                            -नरेश वैद

कुछ लोग हैं जो मिलते हैं और गुज़र जाते हैं
पर हमेशा के लिये यादों में बसे रह जाते हैं

उनकी तारीफ करें हम जितनी, चाहे जितनी
अल्फाज़ हमेशा ही मगर कुछ कम रह जाते हैं
                                                 - हर्ष कुमार

गुरुवार, 23 मई 2013


तमाम उम्र साये की तरह कोई भी मेरे साथ न रहा.
किसी से उम्मीद क्या रखूं साया भी मेरे साथ न रहा.