कल-कल कल-कल
कल-कल कल-कल
बहता जाता पानी
नदिया का पानी
कल-कल कल-कल करता
बहता है पर्वत से
घाटी से बहता है
कल-कल कल-कल करता
अविरत बहता जाता है पानी
राह रोक कर खड़े हुये
पर्वत कितने ऊंच-ऊंचे
कहते हैं – हम हैं बलशाली
ऊंचे कितने, बरसों से प्रहरी हैं
रोक नहीं पाते वो उसको
वह जाता है रोज़ निरंतर
काट उन्हें, वो बहता जाता है
कहता जाता है
कल-कल कल-कल
पर्वत के पत्थर
आते हैं रस्ते में उसके
कहते हैं उसको
रुकजा हम हैं रस्ते में तेरे
राह रोक कर खड़े हुये
तू थमजा, साथ हमारे रुकजा
पड़े वहीं रह जाते हैं पत्थर
कभी काटता वो उनको
कभी छांटता वो उनको
जाता है अपने रस्ते
ये इन्तजार में रहते उसके
सोचा करते -
वो कल रुक जायेगा
पर वह बहता जाता है
कहता जाता है
कल-कल कल-कल
तुम जब भी देखो
कोई रोड़ा, पत्थर कोई आये
राह तुम्हारी रोक खड़ा हो
बोले – रुक जाओ, थम जाओ
तुम जाना रस्ते पर अपने
हंस कर तुम उससे कहना
कल-कल कल-कल
1 टिप्पणी:
आपने बहुत सुन्दर लिखा है आपने बहुत सुन्दर लिखा है
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