गुरुवार, 1 जून 2017

क्यों सोचते हैं हम?

कल एक पुराने दोस्त से
मेरी मुलाकत हो गयी
मुझे देख चौंक उठे
बोले – कैसे हो?
तबीयत ठीक है?

मैंने कहा – हां ठीक है
मज़े में हूं बस सोच रहा था कि ...
उन्होंने मुझे बीच में टोक दिया
आगे बोलने से रोक दिया
कहा – क्यों सोचते हो?
आखिर क्या बात है ?
तुम सोचते क्यों हो?

तुमने देखा है किसी पंछी को
हवा से बातें करते झूमते
मस्ती में अपनी धुन में गाते
किसी तितली देखा है उड़ते
किसी भंवरे को मंडराते देखा है
कोयल की कूक सुनी है

कभी देखा है किसी कुत्ते को
गाड़ी के पीछे दौड़ते
बिल्ली को चूहे से खेलते
खरगोश को छलांग लगाते
हिरण को भागते देखा है
बैल को काम करते
रहट से पानी खींचते देखा है
शेर को शिकार करते
मछ्ली को तैरते देखा है
कभी देखा है तुमने
किसी बच्चे को मस्ती करते

ये सब सोचते नहीं हैं
ज़िन्दगी के मज़े लेते हैं
ज़िन्दगी मज़े से जीते है
तुम नाहक परेशान होते हो
व्यर्थ सोचते हो
जिन्दगी का ढंग बदल दो
जिन्दगी खुल कर जी लो
सोचना बंद कर दो

मझे समझ आया
दुनियां में कितने जीव हैं
खुल कर जीते हैं
सोचते नहीं हैं
ये भी कितना सीधा आदमी
कितना अच्छा आदमी
सोचता नहीं है
मज़े से जीता है!

मैं फिर सोच में पड़ गया
ये सब मजे से जीते हैं
हम बेकार ही सोचते हैं?
क्यों सोचते हैं हम?

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