शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

दमकता दिया

रात का समय था
चारों ओर अंधकार था
आसमान पर बदली थी,
रोशनी का सुराग न था

गंतव्य पर हमारा ध्यान था
हमें समय का ख्याल था
वो हाथ से फिसल रहा था
इसका पूरा अहसास था

दिमाग छुट्टी पर था
हमारा मन बेकाबू था
हम रास्ता जानते थे
मगर राह खो बैठे थे

तभी कहीं दूर कुछ दिखा
वो हमसे बहुत दूर था
ठीक से नहीं दिखा था
हमें बाद में पता चला
टिमटिमाता दिया था

उसमें तेल कम था
हवा तेज चल रही थी
उसकी लौ कांप रही थी
मगर हौसला बुलंद था

उसे हालात का ज्ञान था
छोटे होने का अहसास था
वो पूरी रात न चल पायेगा
न जाने कब बुझ जायेगा
हमेशा के लिये सो जायेगा
वो यह सब जानता था


वो खुद को खो रहा था
हमें रास्ता दिखा रहा था
बराबर लगातार जल रहा था

हमारे काफिले में वो कौन थे
किस तरह के, कहां के लोग थे
न जाने किस कुंठा से ग्रस्त थे
दिये में कमी खोज रहे थे

उसकी रोशनी में कमी थी
उसमें घी नहीं, तेल जलता था
वो मट्टी का बना था
सभी को बता रहे थे

सूरज से तुलना कर रहे थे
उसे छोटा और तुच्छ बता रहे थे
कहां सूरज का दमकता प्रकाश
कहां वो पिद्दी सा दिया
वो उसका काम क्यों करता है?
बार-बार यही पूछते थे

मैं ये सब देखता था
अचम्भे में सोचता था

कैसे लोग हैं अजीब लोग हैं?
दिखती राह नहीं चलते
सही राह नहीं चलते
दिये से कुछ सीखते नहीं हैं
वो इनके लिये जलता है
ये बेकार उससे जलते हैं
अजीब लोग हैं, ये कैसे लोग हैं?

1 टिप्पणी:

peekay1953 ने कहा…

Kash! Log Diye ko pachan pate aur uski kadra kartey.

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