गुरुवार, 11 नवंबर 2010

सरफिरे

सर फिर गया था हमारा
गलती की थी हमने
बहुत बड़ी गलती
जान बूझ कर की थी
निकल पड़े थे नंगे हाथ
बढ़ती आग बुझाने

अनजान नहीं थे हम
लड़ाई आर – पार की थी
जानते थे एक ही बचेगा
बाजी जीत लेंगे या तबाह होंगे
शायद जीत कर भी तबाह होंगे
फिर भी कूद पड़े थे

अनजान नहीं थे हम
किसी तगमे का लालच नहीं था
किसी खिताब की चाह नहीं थी
कुछ कर दिखाना नहीं चाहते थे
बस फिजूल का शौक था

हम पूरे होश में थे
पर न जाने क्यों
अजब, शराबी सा नशा था
सबकी सलाह ठुकरादी
किसी की एक न चली
हम न माने
किसी तरह न माने
बस कूद पड़े

जानते न थे
यह अजब खेल है
हारेंगे तो सब मिलकर मारेंगे
जीतेंगे तो घेर कर मारेंगे
बस मौत लिखी है
सबके नाम लिखी है

कोई हट के मरता है
कोई सट के मरता है
कोई खा कर मरता है
कोई भूखा मरता है
बस मरते हैं सभी
जरूर मरते हैं सभी

अजीब खेल है
यहां हारने वाले को
चील कौवे भी नहीं छोड़ते
जीतने वाले की बलि देते हैं
न जाने क्यों

फिर भी बहुत सरफिरे हैं
कूद जाते हैं
न जाने क्यों?

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

शायद तुम नाराज़ हो मुझसे

सुबह सवेरे उठता हूं
नींद को झझकोड़ कर हटाता
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

छट-पट तैयार
आफिस की भागम-भाग
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

बॉस की सुनी
मातहद को सुनाई
दिनभर कोल्हू का बैल बना
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

शाम, दिन छिपे वापस
थका-मांदा घर लौटता हूं
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

फिर रात
वही घर, वही बिस्तर
करवट बदलता सोता हूं
तुम्हारे ख्याल में रहता हूं

उम्र कट जायेगी यूं ही
घर-आफिस के बीच की दौड़
तुम्हारे ख्याल में गुज़र जायेगी

फिर भी न जाने क्यूं
मुझे लगता है –
तुम शायद नाराज़ हो मुझसे

आस-पास की चोरी
लूट-खसोट, मार-पीट
भष्टचार - चोर बाज़ारी
मंहगाई आत्याचार
मुझे क्यों नहीं दिखता ?
इन्हें हटाने के लिये मैं कुछ नहीं करता !

न जाने क्या सोचता हूं?
बस तुम्हारे ख्याल मैं रहता हूं
कभी-कभी सोचता हूं -
शायद तुम नाराज़ हो मुझसे

मैं क्यों कुछ नहीं करता
क्यों ख्याल में खोया रहता हूं ?
क्यों सपनों मैं सोया रहता हूं ?
मैं नहीं जानता

पर अक्सर सोचता हूं -
तुम बहुत नाराज़ हो मुझसे

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

लालच की पूजा

सुनते हैं भगवान होता है
गरीब का अन्नदाता ,
अमीर का रक्षक।

पूजते हैं दोनों
बड़ी लगन से
बहुत ही मन से
भिन्न भिन्न रूपों में
विभिन्न तरीकों से
एक ही ध्यान से
थोड़े लालच से ।
सोचते हैं

जगतपति हमें कुछ दे जायेगा
तो उसका क्या जायेगा

आदमी

सुबह से शाम तक
कोल्हू के बैल सा पिसता
आदमी, चला जाता है
तपती रेत पर दोपहर को
धूप में, अपने पके बाल लिये
अपना खून पसीना एक करने।

अपनी जी तोड़ मेहनत के बाद भी
जीता है निस्तेज, संध्या के सूर्य सा

पर ऐसे नहीं
पहले वह मरता है,
फिर जीता है।

आत्म त्याग [1]

कल रात
अमीरी का लिबास ओढ़े
गर्म कपड़ों में लिपटा हुआ
मैं, दिल्ली प्रशासन की गाडि़यों में
सड़क पर फैली हुई
बिजली के खम्बों की रोशनी में

गरीबी के सताये
गरीबों को खोजने गया।
प्रशासकीय कर्मचारियों की सहायता से
बहुत खोजने पर
एक व्यक्ति को मैंने
एक दुकान के बाहर सोते देखा।

उसके पास ओढ़ने को
रेशमी शाल नहीं
एक फटे टाट के सिवा, कुछ न था
और बिछाने के लिये
डनलप के गद्दे नहीं
थोड़ा सा पुआल था।

मैंने उसे जगाया
और एक स्वेटर देने लगा
उसने लेने से इन्कार कर दिया
और बोला
- मेरे पास सब कुछ है,
देखते नहीं
पिछले साल खरीदा यह पाजामा
और गर्मियों मे खरीदी यह कमीज
क्या मेरे लिये काफी नहीं?
यह स्वेटर उधर सोते हुए आदमी को दे दो
उसके पास,
पहनने को फटी लंगोटी है
और ओढ़ने को कुछ नहीं।"
इतना कहने के बाद
वह अपने बिस्तर में घुसकर सो गया

उन बर्फीली हवाओं में
उसका आत्म त्याग देख
मैं ठगा सा रह गया।



[1] सन् 1974 में लिखी एक सत्य घटना पर आधारित कविता जो कि उस समय समाज सेवा करते समय घटी थी।

सोमवार, 31 अगस्त 2009

मेरी बेटी की बोली

तुम ने आज फिर
जिद की है।
कहा है - कि मैं एक कविता कहूँ।

तेरी बोली ही कविता है - अलंकृत सत्य सी।
तेरी बोली संगीत है - सात सुरों का।
एक चित्र है - सतरंगी इन्द्र धनुष सा।
एक विचार है - संत स्वभाव का।
एक कर्म है - अर्जुन से कर्मवीर का।
एक धर्म है - युधिष्ठिर से धर्मवीर का।

तेरी बोली, रस की गोली है।
शान्त करती है मन को,
और बन जाती है
मेरी नयी कविता।

कितनी अच्छी है, प्यारी है,
तेरी बोली।
मेरी बेटी की बोली।।

रविवार, 30 अगस्त 2009

भीड़

भीड़
यहाँ, वहाँ
सभी जगह व्याप्त है।

अपने में,
विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को समेटकर
कितनी अशान्त है।

भीड़ का एक व्यक्ति दूसरे से
हर बात में
कितना भिन्न है।

परन्तु
यह आवाज़ तो हर तरफ से आती है
'मुझे', 'यहाँ' और 'इस तरफ'।