गुरुवार, 19 नवंबर 2009

आत्म त्याग [1]

कल रात
अमीरी का लिबास ओढ़े
गर्म कपड़ों में लिपटा हुआ
मैं, दिल्ली प्रशासन की गाडि़यों में
सड़क पर फैली हुई
बिजली के खम्बों की रोशनी में

गरीबी के सताये
गरीबों को खोजने गया।
प्रशासकीय कर्मचारियों की सहायता से
बहुत खोजने पर
एक व्यक्ति को मैंने
एक दुकान के बाहर सोते देखा।

उसके पास ओढ़ने को
रेशमी शाल नहीं
एक फटे टाट के सिवा, कुछ न था
और बिछाने के लिये
डनलप के गद्दे नहीं
थोड़ा सा पुआल था।

मैंने उसे जगाया
और एक स्वेटर देने लगा
उसने लेने से इन्कार कर दिया
और बोला
- मेरे पास सब कुछ है,
देखते नहीं
पिछले साल खरीदा यह पाजामा
और गर्मियों मे खरीदी यह कमीज
क्या मेरे लिये काफी नहीं?
यह स्वेटर उधर सोते हुए आदमी को दे दो
उसके पास,
पहनने को फटी लंगोटी है
और ओढ़ने को कुछ नहीं।"
इतना कहने के बाद
वह अपने बिस्तर में घुसकर सो गया

उन बर्फीली हवाओं में
उसका आत्म त्याग देख
मैं ठगा सा रह गया।



[1] सन् 1974 में लिखी एक सत्य घटना पर आधारित कविता जो कि उस समय समाज सेवा करते समय घटी थी।