अतीत और भविष्य के बीच फँसा
आदमी रहता है त्रिशंकु सा
जानता नहीं किसे पकड़े-
अतीत को या भविष्य को?
अतीत बीत गया है
वापस नहीं आयेगा।
चला गया है हमेशा- हमेशा के लिये।
अब है तो केवल एक स्वप्न सा
आँख बन्द हो तो सामने है
आँख खुले तो अदृष्य, गायब ।
भविष्य भी अदृष्य है ।
पता नहीं क्या है आने वाले समय में।
उसे खोजना, उसके पीछे भागना व्यर्थ है
जैसे मरीचिका के पीछे भगना।
आँख बन्द हो तो दिखता है कल्पना में
आँख खुले तो गायब।
वर्तमान भी कम नहीं
बस भागता रहता है हर पल
एक दरिया सा बहता है निरंतर
थमता नहीं कि उसे देख सकें
परख कर सकें, पकड़ सकें उसे।
रोक पायें अपने दायरे में।
इन्हीं समस्याओं की त्रिविधा में फँसा आदमी
रह जाता है त्रिशंकु सा,
असमर्थ, निसहाय, अकेला।
जानता नहीं कि क्या करे?
किसे पकड़े? किसे रोक कर रखे?
कैसे निकल पायेगा इस चक्रव्यूह से ?
इस चक्रव्यूह से निकल पाता है
बस वही, जो जानता हो
कि निकलना नहीं है कभी
बस यहीं रहना है।
चक्रव्यूह में अभिमन्यु के समान
अपने मर्यादा चक्र में बंधे
अपना कार्म करते हुए
मोक्ष प्राप्त करना है।
बस यहीं रहना है
चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह।