मंगलवार, 27 जून 2017

दिये का धर्म

एक दिया
टिमटिमाता जल रहा था
घनी अंधेरी रात में
दूर कहीं वीराने में
किसी पेड़ के नीचे.

अँधेरे ने उससे कहा
-नाहक खून जलाते हो अपना
कौन है यहां जो तुम्हें देखे
तुम्हारी मदद ले, रास्ता ढूंडे.
पतंगों को जलाते हो
बस व्यर्थ जलते हो.
हवा का एक झोंका ही काफी है
किसी छंड़ भी मिटा देगा तुम्हें.
क्या मिलेगा तुम्हें?
वीराने में एक अंजान मौत!
न देखा किसी ने, न सुना.
तुम्हारे नसीब में नहीं
किसी आँख का कोई आँसू
बस है एक लावारिस मौत.
नाहक जलते हो तुम.

मेरी मानो
-तेल-बाती बचाओ
अपनी आँखें मूंद लो
चुप लगा कर सो जाओ.
आज बचोगे तो कल काम आओगे.

दिया बोला –
किस भ्रम में हो तुम?
सच क्यों नहीं कहते हो?
तुम मुझ से डरते हो !
कहीं पत्तियाँ, सूखी लकड़ियाँ आग न पकड़ लें
दावानल तुम्हारा अस्तित्व न मिटा दे.
तुम नहीं चाहते मैं अपना काम करूँ
बिना डरे, बिना भेद-भाव, निष्पक्ष.
दूर तक लोगों को रास्ता दिखाऊं
उन्हें तुम्हारे चुंगल से बचाऊं.

अरे अधर्मी – निर्लज्ज!
माना मैं अकेला तेरे लिये काफी नहीं
तुझे पूरी तरह हटा न पाऊंगा
पर तुझ पर चोट भरपूर करूंगा.
जब तक तेल-बाती है,
जरा भी जान है
अपना धर्म निभाऊंगा
- तुझ से लड़ूंगा.
तेरी बपौती न चलने दूंगा
तुझे चैन से नहीं रहने दूंगा
तुझ से जीत न पाऊंगा तो क्या
चोट तो पूरी करूंगा.
तेरा नुकसान बहुत करूंगा.

जब तक तेल-बाती है,
ज़रा भी जान बाकी है
मैं जलता रहूंगा.
तुझ से लड़ता रहूंगा